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अर्थनिरूपण
"हे सखी, आज स्नान से भीगे नितम्ब पर चिपके महीन कपड़े के बीच रास्ता न पाने से उनका हाथ मोह में पड़ गया तो मुझे हँसी आ गई।"
उपयुक्त अनुवाद में घोलिर ( घूर्णनशील ) का कोई अर्थ नहीं दिया गया है। हाथ का मोह में पड़ जाना असंगत है क्योंकि मोह चैतन्य को होता है, जड़ शरीर को नहीं । हाथ शरीर का ही एक अंग है। वस्तुतः मल प्राकृतपाठ में प्रयुक्त 'मोह' शब्द संस्कृत 'मोघ' का रूपान्तर है। मोघ का अर्थ है, व्यर्थ । 'मोघघूर्णनशील' का अर्थ है, व्यर्थ इधर-उधर फिरने या भटकने वाला । मार्ग ( मग्ग ) का अर्थ रास्ता नहीं, अन्वेषण ( खोज ) है । गाथा की संस्कृतच्छाया इस प्रकार होनी चाहिये
सेकादें नितम्बालग्नश्लक्ष्णसिचयस्य मार्गमलभमानः ।
सखि ! मोघघूर्णनशीलोऽघ तस्य हसितो मया हस्तः॥ अब गाथा का अर्थ इस प्रकार करना उचित है
हे सखि । आज स्नान से भीगे नितम्ब पर चिपके महीन कपड़े को खोज न पाने के कारण जब उनका हाथ इधर-उधर फिरने लगा तब मुझे उन पर हँसी आ गई। ७. विअलिअकलाकलावो चंदो मित्तस्स मंडलं विसइ । णिस्सरइ तादिसो च्चिअ गअविहवं को समुद्धरइ ॥७३३॥
विगलितकलाकलापश्चन्द्रो मित्रस्य मण्डलं विशति । निःसरति तादृश एव गतविभव कः समुद्धरति ॥ "चन्द्र कलासमूह समाप्त हो जाने पर मित्र ( सूर्य ) के मण्डल में प्रवेश कर जाता है और उस प्रकार ( कलापूर्ण ) होकर ही ( उसे ) निकाल देता है, विभवरहित का उद्धार कौन करता है।''
- "विमर्श-मित्र सूर्य ने तो चन्द्र पर विपत्ति पड़ने पर आश्रय में रखा पर स्वयं चन्द्र सम्पन्न होकर विपन्न सूर्य का उद्धार न कर सका । संसार में अकृतज्ञ प्रायः मिल जाते हैं।" ____ उपयुक्त अर्थ और विमर्श-दोनों नितान्त अनर्गल है । सूर्य के मंडल में प्रविष्ट चन्द्र उसे ही ( सूर्य को ही ) बाहर निकाल देता है, यह निरर्थक बात किसी बुद्धिमान् व्यक्ति के मस्तिष्क बैठ नहीं सकती है। ___'मित्तस्स' में षण्ठी विभक्ति है । यदि वह निकालने की क्रिया का कर्म होता तो उसमें द्वितीया होती। षष्ठी होने पर भी यदि 'तादिस' में द्वितीया होती और उसके साथ द्वितीयान्त 'त' सर्वनाम होता तब भी निकालने की क्रिया का कर्म सर्य हो जाता। परन्तु यह तो तब संभव था जब 'णिस्सर' का अर्थ निकालना होता।
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