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गाथासप्तशती यह क्रिया तो निकालने का अर्थ देती है। 'तादिसो' की प्रथमा विभक्ति उसे प्रथमान्त चन्द्र से ही अन्वित करती है।
विमर्श में लिखा है-''चन्द्र सम्पन्न होने पर सूर्य का उद्धार न कर सका।" यहाँ प्रश्न उठता है कि जब मूल गाथा में 'विगलितकलाकलापः' के द्वारा चन्द्र के ही विपत्ति-ग्रस्त होने का वर्णन है तब सूर्य के उद्धार की समस्या कहाँ से आ गई ?
प्रस्तुत गाथा को समझने के लिये सम्बन्धित पौराणिक सन्दर्भ का ज्ञान आवश्यक है । पुराणों के अनुसार कलाओं का उपक्षय हो जाने पर चन्द्रमा अमावस्या के दिन पुनः कला-संचय के लिये सूर्यमंडल में अनुप्रविष्ट हो जाता है । इस प्रकार प्रत्येक दिन क्रमशः एक-एक कला ग्रहण करते-करते प्रतिपत् से लेकर पूर्णिमा तक उसका परिक्षीण मण्डल पुनः पूर्ववत् परिपूर्ण हो जाता है । परन्तु गाथा का कवि इस सम्पूर्ण सन्दर्भ को नहीं ग्रहण कर रहा है। उसकी दृष्टि प्रवेश और निष्क्रमण के दिन व चन्द्रमा की एक जैसी अवस्था पर केन्द्रित है । कवि का आशय यह है कि चन्द्रमा अमावस्या को क्षीण होकर मित्र सूर्य के मंडल में आश्रय लेता है परन्तु जब उससे बाहर निकलता है तब भी वह क्षीण ही रहता है । अमावस्या और प्रतिपदा को चन्द्रमा की समान स्थिति रहती है। दोनों तिथियों में वह नितान्त क्षीण होने के कारण दिखाई नहीं देता । सूर्य-मण्डल में प्रवेश का कोई लाभ प्रतिपदा को दिखाई नहीं पड़ता, जिसका वैभव नष्ट हो चुका है, उसका उद्धार कौन कर सकता है ?
प्राकृतगाथा में प्रयुक्त मित्त ( मित्र ) शब्द में श्लेष है उससे सूर्य और मित्र दोनों अर्थ उक्त एवं अभिव्यक्त होते हैं। ८. जो होइ रसाइसओ सुविणट्ठाणं वि पुडइच्छृणं । कत्तो सो होइ रसो मोहासाणं आणिच्छृणं ॥ ७३४ ॥
यो भवति रसातिशयः सुविनष्टानामपि पुण्ड्रकेक्षणाम् ।
कुतः स भवति रसो मोहासानामनिच्छूनाम् । "खूब तोड़ने पर भी पोढ़ इक्षु का जो अधिक रस होता है वह अन्य-अन्य इक्षओं का रस कहाँ से हो सकता है।"
उपयुक्त अर्थ अपूर्ण है क्योंकि एक तो 'मोहासानां' का उसमें उपयोग ही नहीं किया गया है, दूसरे गाथा में स्थित सूक्ष्म श्लेष की बिलकुल उपेक्षा कर दी गई है । श्लेषानुरोध से संस्कृतच्छाया के उत्तराध का स्वरूप यह होना चाहियेकुतः स भवति रसो मोघाशानामन्येक्षणाम् ( अनिच्छूनाम् ।
(अन्येच्छ्रनाम्)
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