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________________ ३८ गाथासप्तशतो यत् पीतं मङ्गलवासनया प्रस्थानप्रथमदिवसे । वाष्पसलिलं न तिष्ठति तदेव विरहे रुदत्याः॥ "जिस वाष्पजल को ( प्रियतम के ) प्रस्थान के प्रथम दिन पान कर लिया था वही विरह में रुदन करती हुई के नहीं थमता।" यह अनुवाद अपूर्ण एवं अस्पष्ट है । 'मंगल वासणाए' का अर्थ न देने के कारण बाष्पसलिल के अहेतुक पान की संगति नहीं बैठती है। गाथा का आशय यह है प्रवासी के प्रयाण के समय रोना अशुभ माना जाता है । अतः प्रयाण करते समय नायक की कल्याणकामना से नायिका रोई नहीं, उस दिन आँसुओं का चूंट पीकर रह गई । किन्तु वे ही आँसू नायक के चले जाने पर आज रोंके नहीं रुक रहे हैं। ४३. जह दिअहविरामो णवसिरीसगंधुधुराणिलग्धविओ। पहिअघरिणीअ ण तहा तवेइ तिव्वो वि मज्झण्हो ॥८३३॥ यथा दिवसविरामो नवशिरीषगन्धोद्धरानिल धौतः। पथिकगृहिण्या न तथा तापयति तीव्रोऽपि मध्याह्नः॥ "जो कि दिन का अन्त, नये शिरीष की गन्ध से भरी हवा से युक्त होता है, उससे वियोगिनी को तीव्र भी मध्याह्न सन्तप्त नहीं करता।" यह अनुवाद अपभ्रष्ट है। इसका आशय यह है कि उक्त विशेषण-विशिष्ट सन्ध्या काल के कारण वियोगिनी को मध्याह्न की तीव्र ऊष्मा का अनुभव नहीं होता । यह अर्थ अनुभव-विरुद्ध है । गाथा में 'जह' और 'तह' ( यथा और तथा ) नायिका की अनुभूति की तुलना के लिये प्रयुक्त है। वे हेतुवाचक नहीं हैं। गाथा का सीधा-सा अर्थ यह है कि उक्त विशेषणों से विशिष्ट सन्ध्याकाल ( जिसे शीतल होना चाहिये था ) वियोगिनी को जितना सन्तप्त करता है उतना तीव्र मध्याह्न भी नहीं करता । ( क्योंकि सान्थ्य-सुगन्धि-समीरण से विरह का उद्दीपन होता है।) ‘णवसिरीसगंधुद्धराणिलग्घविओ' की संस्कृतच्छाया 'नवशिरीषगन्धोद्धरानिलपूरितः' होगी । अग्घ का अर्थ पूरित होना है । ४४. दोहुण्हा गोसासा रणरणओ रुज्जगग्गिरं गेअं। पियविरहे जीविअवल्लहाण एसोच्चि विणोओ॥३७॥ . दीर्घोष्णा निःश्वासाः, रणरणको....."गेअं । प्रियविरहे जीतिवल्लभानामेव विनोदः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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