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अर्थनिरूपण "दीर्घ-उष्ण निःश्वास, परेशानी, जोर से रुदन की आवाज और गीत यही प्रिय के विरह में प्राणवल्लभाओं का विनोद है।"
इस गाथा की संस्कृतच्छाया का द्वितीय पाद खण्डित है। रिक्त स्थान पर 'रोदनगद्गदं' होगा। रणरणक का अर्थ औत्सुक्य है । 'जीवितवल्लभानाम्' में बहुव्रीहि समास है । ( जीवितमेव वल्लभं प्रियं यासाम्, जिन्हें जीवन ही प्रिय है।) शुद्ध एवं अखण्डित संस्कृतच्छाया यह होगी
दीर्घोष्णा निःश्वासाः रणरणको रोदनगद्गदं गेयम् । प्रियविरहे जीवितवल्लभानामेष एव विनोदः ।। इस गाथा का वास्तविक अर्थ यह है
प्रियतम के विरह में जिन्हें जीवन प्रिय है ( अर्थात् जो जीवित रहना चाहती हैं।) उनका यही विनोद (दिन काटने का साधन ) है-दीर्घ एवं उष्ण निःश्वास, औत्सुक्य ( उत्कण्ठा ) रुलाई से गद्गद् गीत ।।
यहाँ विरहिणी नायिका का आशय यह है कि दीर्घनिःश्वासादि उन विरहिणियों के दिन काटने के साधन है जो प्रिय के दारुण वियोग में भी जीवित रहना चाहती हैं और प्रिय की अपेक्षा अपने जीवन को ही महत्त्व देती हैं । मैं तो प्रिय के वियोग में जीवित ही नहीं रहना चाहती, अतः ये जीवनोपयोगी सम्बल व्यर्थ हैं। ४५. कंठग्गहणेण सअज्ज्ञिआए अब्भागओवआरेण । वहुआएँ पइम्मि वि आगअम्मि सामं मुहं जाअं ॥८४३॥
कण्ठग्रहणेन प्रतिवेशिन्या अभ्यागतोपकारेण ।
वध्वाः पत्यावपि आगते श्यामं मुखं जातम् ॥ - "स्वागत में पड़ोसिन द्वारा अतिथि के कण्ठग्रहण से वधू का मुख पति के आने पर भी मलिन बना रहा।"
गाथा की संस्कृतच्छाया प्रसंगानुकूल नहीं है। अभ्यागतोपकारेण के स्थान पर अभ्यागतोपचारेण होना चाहिये ।
उपयुक्त अनुवाद में "वधू का मुख पति के आने पर भी मलिन बना रहा।" इस उल्लेख से यह ध्वनि निकलती है कि पति के आगमन के पूर्व नायिका का मुख जैसे मलिन था वैसे ही उसके आगमन के पश्चात् भी मलिन रह गया। उसके मुखमालिन्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसा होना संभव नहीं है । यदि पत्नी का पति से प्रेम था तो विरह में उसका मुख मलिन रहना जितना स्वाभाविक है उतना ही पति के लौट आने पर मुखमालिन्य का दूर हो जाना भी स्वाभाविक
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