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गाथासप्तशती
हे कृष्ण ! यदि तुम महिलाओं के गुण-दोष का विवेचन करने में समर्थ हो -सको तो गोष्ठ में जैसे विचरते हो, वैसे ही गर्व से विचरते रहो ॥ ४७ ॥
संझासमए जलपूरिअलि विहडिएक्कवामअरं । गोरीअ कोसपाणुज्जअं व पमहादिवं णमह ॥ ४८ ॥ [ सन्ध्यासमये जलपरिताञ्जलिं विघटितैकवामकरम् ।
गौर्यै कोषपानोद्यतमिव प्रमथाधिपं नमत ।। ] सन्ध्याकालिक उपासना के समय जल से भरी हुई अंजलि से बांया हाथ 'पृथक् हो जाने पर, जो गौरी के लिए कोष पान सा करते हुए प्रतीत होते हैं, उन अर्द्धनारीश्वर को नमस्कार है ॥४८॥
गामणिणो सव्वासु वि पिआसु अणुमरणगहिअवेसासु । मम्मच्छेएसु वि वल्लहाइ उवरी वलइ दिट्ठी ॥ ४९ ॥
[ग्रामण्याः सर्वास्वपि प्रियास्वनुमरणगृहीतवेषासु।
मर्मच्छेदेष्वपि वल्लभाया उपरि वलते दृष्टिः ॥] यद्यपि ग्राम नायक की सभी पत्नियां सहमरण का वस्त्र पहने हुए हैं तथापि उस मर्मान्तक दुःख में भी उसकी दृष्टि प्राणप्रिया पर ही जाकर थम जाती है ।। ४९ ॥ मामिसरसक्खराण वि अस्थि विसेसो पअम्पिअव्वाणं । हमइआण अण्णो अण्णो उवरोहमइआणं ॥ ५० ॥ [ मातुलानि सदृशाक्षराणामप्यस्ति विशेषः प्रजल्लितव्यानाम् । __ स्नेहमयानामन्योन्य
उपरोधमयानाम् ॥] __ यद्यपि दोनों के अक्षर सरस होते हैं तथापि स्नेहपूर्ण वाणी की विशेषता कुछ और होती है एवं अनुरोधपूर्ण वाणी की कुछ और ।। ५० ॥ हिअआहिन्तो पसरन्ति जाइँ अण्णाई ताई वअणाई। ओसरसु किं इमेहिं अहरुत्तरमेत्त भणिएहि ॥ ५१ ॥
[ हृदयेभ्यः प्रसरन्ति यान्यन्यानि तानि वचनानि । अपसर किमेभिरधरोत्तरमात्रभणितैः ।। ]
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