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पञ्चम शतकम्
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__ जैसे कृष्ण से मिलने के कारण भीमसेन के द्वारा बायें पैर से स्पर्श किया जाता हुआ दुर्योधन दुखी हो गया था। उसी प्रकार संयोग से वसन्त ( या वैशाख मास ) के मिलने के कारण भयानक दक्षिण पवन से स्पृष्ट होता हुआ पथिक दुखी होता है ।। ४३ ।। जाव ण कोस विकासं पावइ ईसीस मालईकलिआ। मअरन्दपाणलोहिल्ल भमर तावच्चिअ मलेसि ॥ ४४ ॥
[ यावन्न कोषवित्रासं प्राप्नोतोषन्मालतीकलिका।
मकरन्दपानलोभयुक्त भ्रमर तावदेव मर्दयसि ।। ] मकरन्द-पान-लोलुप भ्रमर ! मालतो की कली का कोष अभी किंचित् भो विकसित नहीं हुआ है, तब भी तुम उसका मर्दन कर रहे हो ॥ ४४ ।। अकअण्णुअ तुज्झ कए पाउसराईसु जं मए खुण्णं । उपपेक्खामि अलज्जिर अज्ज वि तं गामचिक्खिल्लं ॥ ४५ ॥
[ अकृतज्ञ तव कृते प्रावृड्रात्रिषु यो मया क्षुण्णः ।
उत्पश्याम्यलज्जाशील अद्यापि तं ग्रामपङ्कम् ॥] अरे निर्लज्ज ! तेरे लिये वर्षा को अंधेरी रजनी में मैंने जिसका अवगाहन किया था, गांव का वह पंक अब भी मेरी आँखों से ओझल नहीं हुआ है ॥ ४५ ॥
रेहइगलन्तकेसक्खलन्तकुण्डलललन्तहारलआ । अधुप्पइआ विज्जाहरि व्व पुरुसाइरी बाला ॥ ४६ ॥
[ राजते गलत्केशस्खलत्कुण्डलललद्धारलता।
अर्धोत्पतिता विद्याधरीव पुरुषायिता बाला ।। जिसकी अलकें बिखर गई हैं, कुण्डल स्खलित हो चुके हैं तथा हार भी चंचल हो गये हैं, वह विपरीत-रत करती हुई महिला उस विद्याधरी-सा प्रतीत होती है जिसका आधा शरीर आकाश में उड़ने के लिए ऊपर उठ चुका है ।। ४६ ॥ जइ भमसि भमसु एमेअ कण्ह सोहग्गगविरागोठे। महिलाणं दोसगुणे विआरक्खमो अज्ज विण होसि ॥ ४७ ॥
[ यदि भ्रमसि भ्रम एवमेव कृष्ण सौभाग्यगवितो गोष्ठे । महिलानां दोषगुणी विचारक्षमोद्यापि न भवसि ॥]
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