________________
१०६
गाथासप्तशतो [ श्यामाया गुरुक यौवनविशेषभृते कपोलमूले।
पोयतेऽधोमुखेनेव कर्णावतंसेन लावण्यम् ।। ] प्रगाढ़ यौवन से उभरे हुए षोडषी बाला के कपोल-मूल पर विलम्बित कर्णाभरण मानों अपना मुख नीचे कर सौन्दर्य-रस का पान कर रहा है ॥ ३९ ॥
सेउल्लिअसव्वनी गोत्तग्गहणेण तस्स सुहअस्स । दूई पट्टाएन्ती तस्सेअ घरजणं पत्ता ॥ ४० ॥ [स्वेदार्टीकृतसर्वाङ्गी गोत्रग्रहणेन तस्य सुभगस्य ।
दूती प्रस्थापयन्ती ( संदिशन्ती वा ) तस्यैव गृहाङ्गणं प्राप्ता ॥ वह दूती के द्वारा सन्देश भेज ही रही थी कि किसी ने प्रेमी का नाम ले लिया, जिससे पसीने में तर होकर वह स्वयं ही उसके आँगन में जा पहुँची ॥ ४० ॥ जम्मन्तरे वि चलणं जीएण खु मअण तुज्झ अच्चिस्सं । जइ तं पि तेण बाणेण विज्झसे जेण हं विज्झा ॥४१॥
[ जन्मान्तरेऽपि चरणौ जीवेन खलु मदन तवार्चयिष्यामि ।
यदि तमपि तेन बाणेन विध्यसि येनाहं विद्धा ॥] हे मदन ! जन्मान्तर में भी तुम्हारे चरणों की प्राणों से अर्चना करूंगी, यदि उसी बाण से उन्हें भी विद्ध करो जिससे मुझे विद्ध किया है ।। ४१ ॥ णिअवक्खारोविअदेहभारणिउणं रसं लिहन्तेण । विअसाविऊण पिज्जइ मालइकलिआ महुअरेण ॥ ४२ ॥
[निजपक्षारोपितदेहभारनिपुणं रसं लभमानेन ।
विकास्य पीयते मालती कलिका मधुकरेण ॥] निपुणता से पंखों पर अपने शरीर का भार संभालकर मँडराता हुआ भ्रमर मालती को खिला-खिलाकर उसका रस पी रहा है ॥ ४२ ॥ कुरुणाहो विअ पहिओ दूमिज्जइ माहवस्स मिलिएण । भीमेण जहिछिआए दाहिणवाएण छिप्पन्तो ॥ ४३ ॥
[ कुरुनाथ इव पथिको दूयते माधवस्य मिलितेन । भीमेन यथेच्छया दक्षिणवातेन स्पृश्यमानः ।।]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org