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पञ्चम शतकम्
कत्थं गरइबिम्बं कत्थ पणट्ठाओं चन्दताराओ । गअणे वलाअपन्ति कालो होरं व कट्ठेइ ॥ ३५ ॥
[ कुत्र गतं रविविम्बं कुत्र प्रणष्टाश्चन्द्रतारकाः । गगने वलाकापंक्ति कालो होरामिवाकर्षति ॥ ]
सूर्य बिम्ब कहाँ गया ? चन्द्र और तारे कहाँ नष्ट हो गये ? मानों यही जानने के लिए काल वकपंक्ति की कठिनी-रेखा खींच रहा है ।। ३५ ।।
अविरलपडन्तणवजलधारारज्जुघडिअं पअत्तेण ।
अपहृत्तो उपखेत्तुं रसइ व मेहो महि उअह ॥ ३६ ॥ [ अविरल पतन्नवजलधारारज्जुघटितां प्रयत्नेन । अप्रभवन्नुत्क्षेप्तु रसतीव मेघो महीं पश्यत ॥ ] देखो, अजस्र गिरती हुई जलधारा की रज्जु में पृथ्वी को बाँधकर मेघ अपनी ओर खींच रहे हैं । जोर लगाने पर भी जब नहीं उठती तभी मानों " चिल्लाने लगते हैं ॥ ३६ ॥
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ओ हिअअ ओहिदिअहं तइआ पडिवज्जिऊण दइअस्स । अत्थेक्काउल वीसम्भघाइ किं तइ समारद्धं ॥ ३७ ॥
[ हे हृदय अवधिदिवसं तदा प्रतिपद्य दयितस्य । अकस्मादाकुल विस्रम्भघातिन् किं त्वया समारब्धम् ।। ]
रे विश्वासघाती हृदय ! प्रयाण के समय तो प्रियतम के आगमन की अवधि तुमने स्वीकार कर ली थी, अब सहसा आकुल होकर क्या करना चाहते हो ? ।। ३७ ।।
जो विण आणई तस्स वि कहेइ भग्गाइँ तेण वलआइँ । अइउज्जुआ वराई अइ व पिओ से हआसाए ॥ ३८ ॥ [ योऽपि न जानाति तस्यापि कथयति भग्नानि तेन वलयानि । अतिऋजुका वराको अथवा प्रियस्तस्या हताशायाः ॥ ]
वह बेचारो बड़ी ही भोली है, या उसका प्रेमी ही वैसा है, क्योंकि जो नहीं जानता है, उससे भी कहती है कि उन्होंने मेरा कंकण तोड़ दिया ॥ ३८ ॥
सामाइ गरुअजोव्वणविसेसभरिए कबोलमूलम्मि । पिज्जइ अहोमुहेण व कण्णवअंसेण लावण्णं ॥ ३९ ॥
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