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गाथासप्तशती
[ कथं स न संस्मर्यंते यो मम तथासंस्थितान्यङ्गानि । निवर्ततेऽपि सुरते निध्यायति सुरतरसिक इव ॥ ]
जो रति के समाप्त हो जाने पर भी सुरत रसिक के समान मेरे अंगों को उसी स्थिति में निहारता रहता है, उसे क्यों न याद करूँ ? ।। १३ ॥
सुक्खन्तबहलकद्दम्मधम्मविसूरन्तकमठपाठीणं दिट्ठ अदिट्ठउब्वं कालेण तलं
।
तडाअस्स ॥ १४ ॥
[ शुष्यद्वहलकर्दमघर्मखिद्यमान कमठपाठोनम् । दृष्टमदृष्टपूर्वं कालेन तलं तडागस्य ।। ]
समय के परिवर्तन से जिसका घना पंक सूख जाने पर कछुए और मछलियाँ धूप में छटपटा रही हैं । समय आने पर उस सरोवर का तल जो कभी देखा नहीं गया था वह देख लिया ॥ १४ ॥
चोरिअर असद्धालु मा पुत्ति बभमसु अन्धआरम्मि । अहिअअरं लक्खिज्जसि तमभरिए दीवसीहव्व ॥ १५ ॥ [ चौर्यरतश्रद्धाशीले मा पुत्रि भ्रमान्धकारे । अधिकतरं लक्ष्यसे तमोभृते दीपशिखेव || ]
चौर्य - रत में विश्वास रखने वाली पुत्री ! अन्धकार में मत घूमो क्योंकि अन्धकार में तुम दीपशिखा -सी अनायास ही लक्षित हो जाओगी ।। १५ ।।
वाहिता पडिवअणं ण देइ रूसेइ एक्कमेक्कस्स । असई कज्जेण विणा पद्दष्पमाणे णईकच्छे ॥ १६ ॥
[ व्याहृता प्रतिवचनं न ददाति रुष्यत्येकैकस्य । असती कार्येण विना प्रदीप्यमाने नदीकच्छे ॥ ]
नदी की कछार में आग लगने पर व्यभिचारिणी महिला अकारण ही प्रत्येक व्यक्ति पर रुष्ट हो जाती हैं और पूछने पर उत्तर नहीं देतीं ॥ १६ ॥
आम असइ ह्म ओसर पइव्वए ण तुह मइलिअङ्गोत्तं । कि उण जणस्स जाअव्व चन्दिलं ता ण कामेमो ॥ १७ ॥
[ आम असत्यो वयमपसर पतिव्रते न तव मलिनतं गोत्रम् । किं पुनर्जनस्य जायेव नापितं तावन्न कामयामहे ॥ ]
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