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पञ्चम शतकम्
एक्को पण्हुअइ थणो बीओ पुलएइ णहमुहालिहिओ। पुत्तस्स पिअअमस्स अ मज्झणिसण्णाएँ घरणीए ॥ ९ ॥ [एक: प्रस्नोति स्तनो द्वितीयः पुलकितो भवति नखमुखालिखितः।
पुत्रस्य प्रियतमस्य च मध्यनिषण्णया गृहिण्याः ॥] पुत्र और पति के मध्य में बैठी हुई गृहिणी के एक स्तन से दूध की धार चूती है और दूसरा नख-पंक्ति से भूषित होकर रोमांचित हो गया है ॥ ९॥ एत्ताइच्चिअ मोहं जणेइ बालत्तणे वि वहन्ती। गामणिधूआ विसकन्दलिव्व वड्ढीऑ काहिह अणत्थं ॥ १० ॥
[एतावत्येव मोहं जनयति बालत्वेऽपि वर्तमाना।
ग्रामणोदुहिता विषकन्दलीव वर्धिता करिष्यत्यनर्थम् ॥ ] यह गाँव के नायक की पुत्री अभी छोटी होने पर भी दर्शकों का चित्त चुरा लेती है, बड़ी होने पर तो विषलो बूटी के समान अनर्थ ही करेगी ॥ १० ॥
अपहुप्पन्तं महिमण्डलम्मि गहसंठिअं चिरं हरिणो । तारापुष्फप्पअरञ्चिों व तइअं परं णमह ॥ ११ ॥
[अप्रभवन्महीमण्डले नःभसंस्थितः चिरं हरेः।।
तारापुष्पप्रकराञ्चितमिव तृतीयं पदं नमत ॥] भू-मण्डल में न समा करके आकाश में स्थित होने पर मानों तारा रूपी पुष्प-पुंज से पूरित भगवान् वामन के तृतीय चरण को प्रणाम कीजिए ॥ ११ ॥ सुप्पउ तइओ वि गओ जामोत्ति सहीओं कोस मं भणह । सेहालिआणं गन्धो ण देइ सोत्तुं सुअह तुम्हे ॥ १२ ॥ [ सुप्यतां तृतोयोऽपि गतो याम इति सख्यः किमिति मां भणथ ।
शेफालिकानां गन्धो न ददाति स्वप्नु स्वपित यूयम् ॥] "सो जाओ, रात्रि का तीसरा पहर भी बीत गया" मेरी सखी! तुम मुझसे यह कैसे कह रही हो? तुम्हीं सो जाओ, शेफालिका को गन्ध मुझे सोने नहीं देती ॥१२॥ कह सो ण संभरिज्जइ जो मे तह संठिआई अङ्गाई । णिवत्तिए वि सुरए णिज्झाअइ सुरअरसिओव्व ॥ १३।।
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