SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम शतकम् १०१ हाँ, अवश्य ही हम कुलटा हैं, पतिव्रते ! तुम यहाँ से चली जाओ, हमने तुम्हारा गोत्र कलंकित नहीं किया है फिर भी साधारण लोगों की स्त्रियों की भाँति किसी नाई से प्रेम नहीं करती ।। १७ ॥ गिद्द लहन्ति कहिअं सुणन्ति खलिअक्खरं ण जम्पन्ति । जाहिँ दिट्ठो सि तुमं ताओ चिचअ सुहअ सुहिआओ ॥ १८ ॥ [ निद्रां लभन्ते कथितं शृण्वन्ति स्खलिताक्षरं न जल्पन्ति । याभिर्न दृष्टोऽसि त्वं ता एवं सुभग सुखिताः ॥ ] जिन्होंने तुम्हें नहीं देखा है, हो सुखी हैं, क्योंकि वे गद्गद कण्ठ से नहीं बोलती कहना सुनती हैं और रात को सो जाती हैं ।। १८ ।। 9 बालअ तुमाइ दिण्णं कण्णे काऊण बोरसंघाडि । लज्जालुइणी वि वहू घरं गआ गामरच्छाए ॥ १९ ॥ [ बालक त्वया दत्तां कर्णे कृत्वा बदरसंघाटीम् । लज्जालुरपि वधूगृहं गता ग्रामरथ्यया ॥ ] पुत्र ! तुमने बेर का सफल-वृन्त उसके कानों में पहना दिया था, इससे लज्जाशील होने पर भी वह वधू गाँव को गली से होकर घर गई ॥ १९ ॥ अह सो विलक्खहिओ मए अहव्त्राएँ अगहिआणुनओ । परवज्जणच्चरीहिं तुह्मेहिँ उवेक्खिओ णेन्तो ॥ २० ॥ [ अथ स विलक्षहृदयो मया अभव्यया अगृहीतानुनयः । परवाद्यनतं नशीलाभिर्युष्माभिरुपेक्षितो निर्यन् ॥ ] जब मैंने उनको अभ्यर्थना की परवाह नहीं को, तो वे मन में लज्जित होकर जाने लगे, उस समय बाजा बजाकर दूसरे को नचाते हुए तुम लोगों ने उनको उपेक्षा की ।॥ २० ॥ दोसन्तो अणसुहो णिव्वुइजणओ करेहिं वि छिवन्तो । अम्भस्थिओ ण लब्भइ चन्दो व्व पिओ कलाणिलओ ॥ २१ ॥ [ दृश्यमानो नयनसुखो निर्वृतिजननः कराभ्यां [ अपि ] स्पृशन् । अभ्यर्थितो न लभ्यते चन्द्र इव प्रियः कलानिलयः ॥ ] देखते ही नयनों को तृप्ति-दायक एवं करों के स्पर्श से आनन्द-मग्न कर देने वाला चन्द्रमा-सा, कलावान् प्रेमी अभ्यर्थना करने पर भी प्राप्त नहीं होता ॥ २१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy