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गाथासप्तशती जे णीलब्भमरभरग्गगोछा आसि णइअडुच्छङ्गे । कालेण वञ्जुला पिअअवस्स ते थण्णुआ जाआ ॥ २२ ॥ [ये नीलभ्रमरभरभग्नगुच्छका आसन्नदीतटोत्संगे।
कालेन वज़ुलाः प्रियवयस्य ते स्थाणवो जाताः ।। मित्र ! नीले भौंरों के भार से जिनके गुच्छे झुके रहते थे, आज नदो के. किनारे, उन्हीं अशोकों के केवल छुट शेष रह गये हैं ॥ २२ ॥
खणभङ्गुरेण पेम्मेण माउआ दुम्मिअम्ह एत्ताहे। सिविणअणिहिलम्भेण व विट्ठपणद्वेण लोअम्मि ॥ २३ ॥ [क्षणभङ्गुरेण प्रेम्णा मातृध्वसः दूनाः स्म इदानीम् ।
स्वप्ननिधिलम्भेनेव दृष्टप्रनष्टेन लोके ।।] सखी ! देखते ही लुप्त हो जाने वाली सपने की संपत्ति के समान क्षणभंगुर प्रेम से इस समय हम व्यथित हो चुकी हैं ॥ २३ ।। चावो सहावसरलं विच्छिवइ सरं गुणम्मि वि पडन्तं । वङ्कस्स उज्जुअस्स अ संबन्धो कि चिरं होई ॥ २४ ॥
[ चापः स्वभावसरलं विक्षिपति शरं गुणेऽपि पतन्तम् ।
वक्रस्य ऋजुकस्य च संबन्धः किं चिरं भवति ।।] गुण का आश्रय लेने वाले स्वभाव से सरल बाण को धनुष दूर फेंक देता है, वक्र और ऋजु का संयोग क्या चिरस्थायी होता है ॥ २४ ॥ पढमं वामणविहिणा पच्छा हु कओ विअम्भमाणेण । थणजुअलेण इमीए महुमहणेण व्व वलिबन्धो ॥ २५ ॥
[प्रथमं वामनविधिना पश्चात्खलु कृतो विजृम्भमाणेन ।
स्तनयुगलेनैतस्या मधुमथनेनेव बलिबन्धः ।। ] पहले वामन होकर फिर बढ़कर, इसके दोनों स्तनों ने भगवान् विष्णु के समान बलि ( त्रिबली और दैत्य विशेष ) को बाँध लिया है ।। २५ ॥ मालइकुसुमाइँ कुलुश्चिऊण मा जाणि णिव्वुओ सिसिरो। काअव्वा अज्जवि णिग्गुणाण कुन्दाणे वि समिद्धी ॥ २६ ॥
[ मालतीकुसुमानि दग्ध्वा मा जानीहि निर्वृतः शिशिरः । कर्तव्याद्यापि निर्गुणानां कुन्दानामपि समृद्भिः॥]
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