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________________ पञ्चम शतकम् १०३ शिशिर, मालती के पुष्पों को जलाकर सन्तुष्ट हो गया है, यह मत समझो, अभी उसे गुणहीन 'कुन्द' को भी समृद्ध करना है ॥ २६ ॥ तुझाण विसेसनिरन्तराण [ सरस ] वणलद्धसोहाणं । कअकज्जाण भडाण व थणाण पडणं वि रमणिज्जं ॥ २७ ॥ [ तुङ्गयोविशेषनिरन्तरयोः । सरस] व्रणलब्धशोभयोः । कृतकार्ययोर्भटयोरिव स्तनयोः पतनमपि रमणीयम् ।। ] व्रणों से सुशोभित उन्नत और परस्पर सटे हुए स्तनों का पतन भी कृतकार्य वीरों की भांति रमणीय होता है ॥ २७ ॥ परिमलणसूहा गरुआ अलद्धविवरा सलक्खणाहरणा। थणआ कव्वालाव व्व कस्स हिअए ण लगन्ति ॥ २८ ॥ [ परिमलनसुखा गुरुका अलब्धविवराः सलक्षणाभरणाः । स्तनकाः काव्यालापा इव कस्य हृदये न लगन्ति ॥] मनन करने पर सुखद, अर्थ गौरव से युक्त, निर्दोष एवं उत्कृष्ट लक्षणों और अलंकारों से मंडित काव्य के आलाप ( चर्चा) के समान मर्दन करने पर सुखद, पीनोन्नत, परस्पर सटे, सुन्दर लक्षणों ( सामुद्रिक ) और आभूषणों से भूषित स्तन किसके हृदय में नहीं लग जाते हैं ॥ २८॥ खिप्पइ हारो थणमण्डलाहि तरुणीअ रमणपरिरम्भे । अच्चिअगुणा वि गुणिनो लहन्ति लहुअत्तणं काले ॥ २९ ॥ .. [क्षिप्यते हारः स्तनमण्डलात्तरुणीभिरमणपरिरम्भे । अर्चितगुणा अपि गुणिनो लभन्ते लघुत्वं कालेन । ] प्रेमी का आलिंगन करते समय तरुणियां अपने पयोधरों पर से हार उतार कर रख देती हैं जिनके गुणों की अर्चना होती है, समय आने पर उन गुणवान व्यक्तियों का भी पराभव हो जाता है ॥ २९ ॥ अण्णो को वि सुहाओ मम्महसिहिणो हला हआसस्स । विज्झाइ णोरसाणं हिअए सरसाण झत्ति पज्जलइ ॥ ३०॥ [अन्यः कोऽपि स्वभावो मन्मथशिखिनो हला हताशस्य । निर्वाति नीरसानां हृदये सरसानां झटिति प्रज्वलति ।।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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