SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथासप्तशतो विझारुहणालावं पल्ली मा कुणउ, गामणी ससइ । पच्चज्जिविओ जइ कह वि सुणइ ता जीविअं मुअइ ॥ ३१ ॥ [विन्ध्यारोहणालापं पल्ली मा करोतु ग्रामणीः श्वसिति । प्रत्युज्जीवितो यदि कथमपि शृणोति तज्जीवितं मुञ्चति ।।] अरे गांव वालों । विन्ध्य पर्वत पर जाकर छिप जाने की चर्चा मत करो, अभी ग्रामणी की साँसें चल रही हैं। यदि किसी प्रकार सचेत हो जाएँगे तो भी यह सुनकर उनका प्राणान्त हो जायगा ॥ ३१ ।।। अप्पाहेइ मरन्तो पुत्तं पल्लीवई पअत्तेण। - मह णामेण जह तुम ण लज्जसे तह करेज्जासु ॥ ३२ ॥ [शिक्षयति म्रियमाणः पुत्रं पल्लीपतिः प्रयत्नेन । मम नाम्ना यथा त्वं न लज्जसे तथा करिष्यसि ।।] मृत्युशैया पर पड़ा हुआ पल्ली पति बड़े कष्ट से पुत्र को शिक्षा दे रहा है"बेटा ! वही करना, जिससे तुम्हें मेरे नाम से लज्जित न होना पड़े" ॥ ३२॥ अणुमरणपत्थिआए पच्चागअजीविए पिअअमम्मि । वेहव्यमण्डणं कुलवहूअ सोहग्गअं जाअं ॥ ३३ ॥ [ अनुमरणप्रस्थितायाः प्रत्यागतजीविते प्रियतमे। वैधव्यमण्डनं कुलवध्वाः सौभाग्यकं जातम् ॥] सती होने के लिए प्रस्थान करने वाली बहू के वैधव्य की भूषा पति के पुनरुज्जीवित हो जाने पर सौभाग्य-सूचक हो गई ॥ ३३ ॥ महमच्छिआइ दटुं दळूण मुहं पिअस्स सूणोठें । ईसालुई पुलिन्दी रुक्खच्छाअं गआ अण्मं ॥ ३४॥ [ मधुमक्षिकया दष्टं दृष्ट्वा मुखं प्रियस्योच्छूनोष्ठम् । ईर्ष्यालुः पुलिन्दी वृक्षच्छायां गतान्याम् ॥] मधु-मक्खी के डंक मार देने से सूजा हुआ प्रिय का अधर देखकर पुलिन्द युवती डाह से अन्य वृक्ष की छाया में चली गई ॥ ३४ ॥ धण्णा वसन्ति णीसङ्कमोहणे बहलपतलवइम्मि । वाअन्दोलणओणविअवेणुगहणे गिरिग्गाम ॥ ३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy