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________________ सप्तमं शतकम् [धन्या वसन्ति निःशङ्कमोहन बहलपत्रलवृतौ । वातान्दोलनावनामितवेणुगहने गिरिग्रामे ॥ ] जहाँ बाँसों का वम पवन के झोंकों से झुक जाता है, जो धने पत्तों से घिरा रहता है, जहाँ प्रेमियों की रति-लीला निश्चिन्त भाव से हुआ करती है, उस पर्वतीय गांव के निवासी धन्य हैं ! ॥ ३५ ॥ पप्फुल्लघणकलम्बा गिद्धोअसिलाअला मुइअमोरा । पसरन्तोमर मुहला ओसाहन्ते गिरिग्गामा ॥३६॥ [प्रोत्फुल्लघनकदम्बा निर्धातशिलातला मुदितमयूराः। प्रसरन्निर्झरमुखरा उत्साहयन्ति गिरिग्रामाः॥] जहाँ घने कदम्ब खिलते हैं, शिलातल धुले रहते है, मयर मुदित रहते हैं, निर्झर कोलाहल करते हैं, वे पर्वतों के अंचल में बसे हुए गांव मन में एक उत्साह उत्पन्न कर देते है ॥ ३६॥ तह परिमलिआ गोवेण तेण हत्थं पि जाण ओल्लेइ । सच्चिम घेणू एहि पेच्छसु ! कुडदोहिणी जाआ ॥ ३७॥ [ तथा परिमलिता गोपेन तेन हस्तमपि या नायति । सैव धेनुरिदानी प्रेक्षध्वं कुटदोहिणी जाता ।।] जो कभी दुहने वाले का हाथ भो भिगो नहीं पाती थी, उसी गाय को कुशल गोप ने ऐसे ढंग से दुहा कि अब एक घड़ा दूध देने लगी । ३७ ।। घवलो जिअइ तुह कए, धवलस्स कए जिअन्ति गिट्टीओ। जिम तम्बे ! अम्ह वि जीविएण गो? तुमाअत्तं ॥ ३८ ॥ [धवलो जीवति तव कृते धवलस्य कृते जीवन्ति गृष्टयः। जीव हे गौः अस्माकमपि जीवितेन गोष्ठं त्वदायत्तम् ।। ] तेरे लिए हो धौरा बैल जी रहा है और धौरे बैल के लिये प्रथम-प्रसूता गायें जीवित हैं। हे गाय ! तू जोती रह, हमारी गोशाला तेरे ही अधीन है ॥ ३८॥ अग्घाइ, छिवइ, चुम्बइ, ठेवइ, हिअअम्मि जणिअरोमञ्चो । जाआकवोलसरिसं पेच्छह ! पहिओ महुअपुष्फ ॥ ३९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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