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________________ १५४ गाथासप्तशती [ आजिघ्रति स्पृशति चुम्बति स्थापयति हृदये जनितरोमाञ्चः । जायाकपोलसदृशं पश्यत पथिको मधूकपुष्पम् ।। ] प्रिया के कपोल के समान मधूक- पुष्प को देखते ही पथिक पुलकित होकर कभी उसे सूंघता है, कभी छूता है, कभी चूमता है और कभी छाती से लगा ता है ।। ३९ ।। उअ ! ओल्लिज्जइ मोहं भुअंगकित्तीअ कडअलग्गाइ । सीसं वणगएण ॥ ४० ॥ ओज्झरधारासद्धालुएण [ पश्यार्द्रौक्रियते मोघं भुजङ्गकृत्तौ कटकलग्नायाम् । निर्झरधाराश्रद्धालुकेन गीर्ष वनगजेन ॥ ] पर्वत के नितम्ब से लटकती हुई सर्प की केंचुली को झरने की धारा समझ कर बनौला हाथी व्यर्थं अपना मस्तक भिगो रहा है ॥ ४० ॥ कमलं मुअन्त महुअर पिक्कइत्थाएँ गन्धलोहेण । आलेक्खलड्डुअं पामरो व छिविऊण जाणिहिसि ॥ ४१ ॥ [ कमलं मुञ्चन्मधुकर पक्ककपित्थानां गन्धलोभेन । आलेख्यलड्डुकं पामर इव स्पृष्टट्वा ज्ञास्यसि ॥ ] अरे मधुकर ! तुम पके कपित्थ की सुगन्ध के लोभ में कमल को त्याग कर मूढ़ों के समान चित्र का लड्डू छूने पर ही जान पाओगे ॥ ४१ ॥ गिज्जन्ते मङ्गलगाइआहिँ वरगोत्तदिण्णअण्णाए । सीडं व णिग्गओ, उअह ! होन्तवहुआइ रोमञ्चो ।। ४२ ।। [ गीयमाने मङ्गलगायिकाभिवरगोत्रदत्त कर्णायाः । श्रोतुमिव निर्गतः पश्यत भविष्यद्वधकाया रोमाञ्चः ॥ ] जब स्त्रियों मंगल गाने लगीं तो वर का नाम जानने के लिये जिसने अपने कान लगा दिये थे, उस कन्या के रोमांच मानों संगीत सुनने के लिए बाहर निकल आये ।। ४२ ॥ आअण्णान्ता मण्णे आसण्णविआहमङ्गलुग्गाइई । तेहिं जुअणेहिँ समं हसन्ति हसन्ति म वेअसकुडङ्गा ॥ ४३ ॥ [ मन्ये आकर्णयन्त आसन्नविवाहमङ्गलोद्गीतम् । तैर्युवभिः समं हसन्ति मां वेतसनिकुञ्जाः ॥ ] मैं समझती हूँ, विवाह - वेला के मंगल-गीतों को सुन कर बेतों का कुंज उन युवकों के साथ मेरी हँसो उड़ा रहा है ॥ ४३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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