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________________ सप्तमं शतकम् उअगअच उत्थिमङ्गलहोन्त विओअसविसेसलग्गेह तीअ वरस्स अ सेअंसुएहिँ रुष्णं व हत्थे ॥ ४४ ॥ [ उपगतचतुर्थीमङ्गलभविष्यद्वियोगसविशेषलग्नाभ्याम् । तस्या वरस्य च स्वादाश्रुभी रुदितमिव हस्ताभ्याम् ॥ आगामी चतुर्थी मंगल के दिन होने वाले वियोग की शंका से जो अधिक दृढ़ता से पकड़े गये थे, वर-वधू के वे हाथ मानों सस्वेद के आँसू बहाकर रो पड़े ।। ४४ ।। ण अदिट्ठि णेइ, मुहं ण अ छिविअं देइ, गालवइ कि पि । तह वि हू कि पि रहस्सं णववहुसङ्गो पिओ होइ ॥ ४५ ॥ १६५ [ न च दृष्टि नयति मखं न च स्प्रष्टुं ददाति नालपति किमपि । तथापि खलु किमपि रहस्यं नववधूसङ्ग प्रियो भवति ॥ ] यद्यपि नव वधू सामने दृष्टि नहीं करती, मुँह का स्पर्श नहीं करने देती और बोलती भी नहीं, फिर भी पता नहीं कौन सा ऐसा रहस्य है कि उसका संग मनोहर लगता है ।। ४५ ।। अलिअपसुत्तवलन्तम्मि णववरे, णववहूअ वेवन्तो । संवेल्लिअरु संजमिअवत्थगण्ठि गओ [ अलीकप्रसुप्तवलमाने नववरे नववध्वा वेपमानः । संवेष्टितोरुसंयमितवस्त्रग्रन्थि गतो हस्तः ॥ ] हत्थो ।। ४६ ।। झूठमूठ सोये हुए पति के करवट लेते ही बहू का कंपित हाथ सटायी हुई जांघों से नियन्त्रित नीवी की गाँठ पर चला गया || ४६ ॥ पुच्छिज्जन्ती ण भणइ, गहिआ पप्फुरइ, चुम्बिआ रुअइ । तुहिक्का णववहुआ कआवराहेण उवऊढा ॥ ४७ ॥ [ पृच्छमाना न भणति गृहीता प्रस्फुरति चुम्बिता रोदिती । तूष्णीका कृतापराधेनोपगूढा ॥ ] नववधूः Jain Education International जिसने बिना समझे - बूझे आलिंगन कर लिया है, उस अपराधी पति के बुलाने पर भी चुपचाप खड़ी हुई नव-वधू नहीं बोलती, पकड़ने पर हट जाती है. और चूमने पर रोने लगती है ॥ ४७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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