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गाथासप्तशती तत्तो च्चिअ होन्ति कहा, विअसन्ति तहि, महिं समप्पयन्ति । किं, मण्णे, माउच्छा ! एक्कजुआणो इमो गामो ?॥४८॥
[ तत एव भवन्ति कथा विकसन्ति तत्र तत्र समाप्यते ।
किं मन्ये मातृश्वसः एकयुवकोऽयं ग्रामः ॥] वहीं से बातें निकलती है, वहीं फैलती है, वहीं समाप्त हो जाती है, मौसी! मैं समझती हूँ, इस गांव में एक ही युवक रह गया है ॥ ४८ ॥ जाणि वअणाणि अम्हे वि जम्पिओ, ताई जम्पइ जणो वि। ताई चिअ तेण पजम्पिआइं हिअअं सुहावेन्ति ॥ ४९ ।। .. [यानि वचनानि वयमपि जल्पामस्तानि जल्पति जनोऽपि ।
तान्यव तेन प्रजल्पितानि हृदयं सुखयन्ति ।।] वही बात मैं बोलती हूँ और वही अन्य लोग भी बोलते हैं किन्तु वही बात जब उनके मुंह से निकलती है, तो हृदय तृप्त हो जाता है ॥ ४९ ॥ सव्वाअरेण मग्गह पिसं जणं जइ सुहेण वो कज्जं । जौं जस्स हिअअदइअं तं सुहं जतहिं गत्य ॥ ५० ॥
[ सर्वादरेण मृगयध्वं प्रियं जनं यदि सुखेन वः कार्यम् ।
यद्यस्य हृदयदयितं तन्न सुखं यत्तत्र नास्ति ।।] यदि सुखी होना चाहती हो तो आदर पूर्वक उसे ढ़ ढ़ों । जो जिसका हृदय वल्लभ हो जाती है, संसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं, जो उसमें न हो ॥५०॥ दोसन्तो दिठिसुओ चिन्तिज्जन्तो मणवल्लहो, अत्ता!। उल्लावन्तो सुइसुहो पिओ जणो णिच्चरमणिज्जो ॥५१॥
दृश्यमानो दृष्टिसुखश्चिन्त्यमानो मनोवल्लभः श्वश्रु ।
उल्लप्यमानः श्रुतिसुखः प्रिय जनो नित्यरमणीयः ।।] आर्ये देखने पर आँखों को सुखद, चिन्तन करने पर हृदय को प्रिय और बातचीत करने पर कानों को तृप्त कर देने वाले प्रेमोजन सदैव रमणीय होते हैं ।। ५१ ॥ ठाणभट्ठा परिगलिअपीणा उण्णई परिचत्ता। अम्हे उण ठेरपओहर व्व उअरे च्चिअ णिसण्णा ॥ ५२ ॥
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