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सप्तमं शतकम्
१५७ [स्थानभ्रष्टाः परिगलितपीनत्वा उन्नत्या परित्यक्ताः।
वयं पुनः स्थाविरापयोधरा इवोदर एव निषण्णाः ॥] अपनी पीवरता एवं उन्नति से च्युत हो जाने पर हम लोग स्थान भ्रष्ट होकर वृद्धा के पयोधरों के समान पेट का आश्रय ले रहे हैं ॥ ५२ ॥ पच्चूसागअ ! रजिअदेह ! पिआलोअ ! लोअणाणन्द !। अण्णत्त खविअसवरि! णहभूसण ! दिणवइ णमो दे ।। ५३ ॥
[प्रत्यूषागत रक्तदेह प्रियालोक लोचनानन्द ।
अन्यत्रक्षपितशर्वरीक नभोभूषण दिनपते नमस्ते ॥] अरुणा वर्णा ! प्रियदर्शन ! नयनानन्द ! नभ भूषण ( श्लेष से नखभूषण ) अन्यत्र रात्रि बिताकर प्रत्यूषवेला में पधारे हुए दिनपति । ( श्लेष से दिन में ही पति ) तुम्हें नमस्कार है ।। ५३ ॥ विवरीअसुरअलेहल ! पुच्छसि मह कीस गब्भसंभूई ? । ओअत्ते कुम्भमुहे जललवकणि वि किं ठाइ ? ॥ ५४॥
[विपरीतसुरतलम्पट पृच्छसि मम किमिति गर्भसंभूतिम् । __ अपवृत्ते कुम्भमुखे जललवकणिकापि किं तिष्ठति ॥]
विपरीत-रति का रस लूटने वाले रसिक ! मुझसे गर्भ के सम्बन्ध में क्या पूंछते हो ? औंधे घड़े में क्या एक बूंद भी पानी ठहर सकता है ? ॥ ५४ ।। अच्चासण्णविवाहे समं जसोआइ तरुण गोवीहि । वड्ढन्ते महुमहणे सम्बन्धा णिहुविज्जन्ति ॥ ५५ ॥
[अत्यासन्नविवाहे समं यशोदया तरुणगोपीभिः।
वर्धमाने मधुमथने सम्बन्धा निन्हयन्ते ॥] बढ़ते हुए कन्हैया जब विवाह योग्य हो गये तो तरुण गोपियाँ यशोदा से अपना पुराना सम्बन्ध छिपाने लगीं ॥ ५५ ॥ जं जं आलिहइ मणो आसावट्ठीहिँ हिअअफलअम्मि । तं तं बालो व्व विही णिहु हसिऊण पम्हुसइ ॥ ५६ ॥
[ यद्यदालिखति मन आशावर्तिकाभिर्हृदयफलके ।
तत्तद्वाल इव विधिनिभृतं हसित्वा प्रोञ्छति ॥] मन हृदय फलक पर आशा की तूलिका से जो कुछ भी लिख जाता है, विधाता उसे एकान्त में हँस कर बालक की तरह पोंछ देता है ॥ ५६ ॥
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