________________
१५८
गाथासप्तशती
अणुहुत्तो करफंसो सअलअलापुण्ण ! पुण्णदिअहम्मि । वीआसङ्ग किसङ्गअ ! एहि तुह वन्दिमो चलणें ॥ ५७ ॥ [ अनुभूतः करस्पर्शः सकलकलापूर्ण पूर्णदिवसे । द्वितीयासङ्गकृशाङ्ग इदानीं तव वन्दामहे चरणौ ॥ ]
पूर्णिमा के दिन जब तुम समस्त कलाओं से पूर्ण थे, तब मैंने तुम्हारे करों के स्पर्श का अनुभव किया था । आज द्वितीया के सम्पर्क से क्षीण हो जाने पर तुम्हारे चरणों को वन्दना करती हूँ ।। ५७ ॥
द्वन्तरिए वि पि कह वि णिअत्ताइँ मज्झ णअणाइँ ।
हिअअं उण तेण समं अज्ज वि अणिवारिअं भमइ ॥ ५८ ॥
[ दूरान्तरेऽपि प्रिये कथमपि निवर्तते मम नयने । हृदयं पुनस्तेन सममद्याप्यनिवारितं भ्रमति ॥ ]
प्रिय के ओझल हो जाने पर मेरी आँखें तो किसी प्रकार लौट आईं किन्तु हृदय आज भी उन्हीं के साथ यात्रा कर रहा है ॥ ५८ ॥ तस्स कहाकण्टइए ! सद्दाअण्णणसमोसरिअकोवे ! । समुहालोअणकम्पिरि ! उवऊढा कि पिवजिहिसि ॥ ५९ ॥
[ तस्य कथकण्टकिते शब्दाकर्णन समपसृतकोपे । संमुखालोकनकम्पनशीले उपगूढा कि प्रपत्स्यसे । ]
अरी ! तुम तो उनकी चर्चा करते ही पुलकित हो गई, शब्द सुनते ही कोप छोड़ बैठी और सम्मुख देखते ही काँपने लगी, आलिंगन करने पर तो पता नहीं, तुम्हारी क्या दशा हो जायगी ? ।। ५९ ।।
भरणमिअणीलसाहग्गख लिअचलणद्धविहु अवक्खउडा । तरुसिहरेसु विहंगा कह कह वि लहन्ति संठाणं ॥ ६० ॥ [ भरनमितनोलशाखाग्रस्खलित चरणार्थं विधुतपक्षपुटाः । तरुशिखरेषु विहंगाः कथं कथमपि लभन्ते संस्थानम् ॥ ]
भार से झुकी हुई नीली शाखाओं पर थोड़ा पैर फिसल जाने से अपना पंख फड़फड़ाते हुए विहंगी तरु शिखरों पर किसी प्रकार बसेरा ले रहे हैं ॥ ६० ॥ अहरमहुपाण धारिहिलआइ जं च रमिओ सि सविसेसं । असइ अलाजिरि वहुसिक्खिरि त्ति मा णाह ! मण्णु हिसि ॥ ६१ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org