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सप्तमं शतकम् [ अधरमधुपानलालसया यच्च रमितोऽसि सविशेम् । __ असती अलज्जाशीला बहुशिक्षितेति मा नाथ मंस्थाः॥] .. अघर-मधु का पान करने की लालसा से जो तुमने मेरे साथ विशेष रमण किया है, प्राणेश ! तो मुझें कहों व्यभिचारिणी, निर्लज्ज, और वहु शिक्षिता न समझ लेना ॥ ६१ ॥
खाणेण अ पाणेण अ तह गहिओ मण्डलो अडअणाए । जह जारं अहिणन्दा भुक्कइ घरसामिए एन्ते ॥ ६२॥
[खादनेन च पानेन च तथा गृहीतो मण्डलीऽसत्या । .. यथा जारमभिनन्दति भुक्कति गृहस्वामिन्येति ॥ : व्यभिचारिणी ने कुत्ते को खिला-पिलाकर ऐसा वशीभूत कर लिया था कि वह जार का अभिनन्दन करता था और गृह स्वामी के आने पर भूकने लगता था ॥ ६२ ॥ कण्डन्तेण अकण्डं पल्लीमज्झम्मि विअडकोअण्डं । पइमरणाहि वि अहिअं वाहेण रुआविआ अता ॥ ६३ ॥ . [कण्डूयता अकाण्डे पल्लीमध्ये विकटकोदण्डम् ।।
पतिमरणादप्यधिक व्याधेन रोदिता श्वश्रुः ॥] गांव में भारी धनुष को अकारण छील कर पतला करते हुए अपने पुत्र को देखकर सास इतना रोई जितना पति के मरने पर भी न रोई थी ॥ ६३ ॥ अम्हे उज्जुअसीला, पिओ वि पिअसहि ! विआरपरिओसो। ण हु अण्णा का वि गई, वाहोहा कहें पुसिज्जन्तु ? ॥ ६४ ॥
[वयं ऋजुकशीलाः प्रियोऽपि प्रियसखि विकारपरितोषः ।
न खल्वन्या कापि गतिष्पिौघाः कथं प्रोञ्छ्यन्ताम् ॥] मैं हाव-भाव से वंचित बिल्कुल भोली हूँ और मेरे पति कृत्रिम हाव-भाव से हो सन्तुष्ट रहते हैं । हाय ! कोई चारा नहीं है, आँखों के उमड़े हुए आंसू कैसे पोंछू ? ॥ ६४ ॥ घवलो सि जइ वि सुन्दर ! तह वि तुए मज्झ रज्जिअं हिअ । राअभरिए वि हिअए सुहअ ! णिहत्तो ण रत्तो सि ॥ ६५॥
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