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सप्तमं शतकम्
१५१ छोटी तलैयों को सुखाकर एवं निकुजों को सघन पत्रों से सजाकर संकेत स्थान को सुलभ बनाने वाले ग्रीष्म तम मेरे सौभाग्य की कसौटी हो, कभी समाप्त न होना ॥ २६ ॥ तुस्सिक्खिअरअणपरिक्खएहिँ घिटोसि पत्थरे तावा । जा तिलमेत्तं वट्ठसि मरगअ का तुज्झ मुल्लकहा ॥ २७ ॥
[ दुःशिक्षितरत्नपरीक्षकैधष्टोऽसि प्रस्तरे तावत् ।
यावत्तिलमात्रं वर्तसे मरकत का तव मूल्यकथा ।।] मूर्ख जौहरियों ने पत्थर पर घिस-घिस कर ही तुझे तिल-जैसा बना दिया है । अरे मरकत ! अब तेरे मूल्य की बात ही क्या रह गई है ॥ २६ ॥ जह चिन्तेइ परिअणो आसङ्कइ जह अ तस्स पडिवक्खो । बालेण वि गामणिणन्दणेण तह रक्खिा पल्ली ॥ २८ ॥
[यथा चिन्तयति परिजन आशङ्कते यथा च तस्य प्रतिपक्षः। . बालेनापि ग्रामणीनन्दनेन तथा रक्षिता पल्ली ।।]
बालक होने पर भी ग्रामणी पुत्र ने गाँव की सुरक्षा का भार इतनी योग्यता से संभाल लिया है कि प्रजा उसका परिश्रम देखकर तरस खाती है और शत्रु सदा शंकित रहते हैं ॥ २८॥ अण्णेसु पहिअ ! पुच्छसु वाहअपुत्तेसु पुसिअचम्माइं। अम्हं वाहजुआणो हरिणेसु धणु ण णामेइ ॥ २९ ॥ - [अन्येषु पथिक पृच्छ व्याधकपुत्रेषु पृषतचर्माणि ।
अस्माकं व्याधयुवा हरिणेषु धनुर्न नामयति ॥] "अरे, पथिक ! अन्य व्याध-पुत्रों से जाकर मृग-चर्म का मूल्य पूछो। हमारे स्वामी तो मृगों पर तीर ही नहीं चलाते ॥ २९ ॥ गअवहुवेहव्वअरो पुत्तो मे एक्ककण्डविणिवाई । तइ सोण्हाइ पुलइओ जह कण्डकरण्डअं वहइ ॥ ३०॥ । [गजवधर्वैधव्यकरः पुत्रो मे एककाण्डविनिपाती।
तथा स्नुषया प्रलोकितो यथा काण्डसमूहं वहति ।।] ... एक ही बाण चलाकर, हथिनियों को विधवा बनाने वाले, मेरे पुत्र को बहू ने कुछ ऐसे ढंग से देखा कि वह अब तरकश ( बाणों का पिटारा) पारण करता है ॥३०॥
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