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________________ द्वितीय शतकम् धरिओ धरिओ विमलइ उअएसो पिहसहोहिं दिज्जन्तो। मअरद्धअबाणपहारजज्जरे तीएं हिअअम्मि ॥ १ ॥ [धृतो धृतो विगलत्युपदेशः प्रियसखीभिर्दीयमानः। मकरध्वजबाणप्रहारजजरे तस्या हृदये ॥] मकरध्वज के बाणों से जर्जर सुन्दरी के हृदय में सखियों द्वारा दिया हुआ उपदेश बार-बार स्थिर करने पर भी बाहर निकल जाता है ॥ १ ॥ तडसंठिअणोडेक्कन्तपीलआरक्खणेक्कदिण्णमणा । अगणिअविणिबाअभआ पूरेण समं वहइ काई ॥२॥ [ तटसंस्थितनोडैकान्तशावकरक्षणे कदत्तमनाः । अगणितविनिपातभया पूरेण समं वहति काको ॥] नदी के तट पर स्थित नीड़ में बैठे शावकों को रक्षा में दत्तचित्त काको अपनी मृत्यु का भय छोड़ कर प्रवाह में बही जा रही है ।। २ ॥ बहुपुष्फभरोणामिअभमोगअसाह सुणसु वित्ति। गोलातडविअडकुडल महुअ सणिअं गलिज्जासु ॥ ३ ॥ [बहुपुष्पभरावनाभितभूमोगतशाख शृणु विज्ञप्तिम् । गोदातटविकटनिकुञ्जमधूक शनैर्गलिष्यसि ॥] पुष्पों के प्रचुर भार से झुकी हुई शाखाओं से भूमि को चूमने वाले, गोदावरी तट के गहन कुञ्ज में खड़े विशाल मधूक ने मेरी विनती सुन ली ! धीरेधीरे चूंओ ॥३॥ णिप्पच्छिमाइँ असई दुःखालोआई महुअपुष्फाई। चीए बन्धुस्स व अठिठ आई रुअई सगुच्चिणइ ॥ ४ ॥ [निष्पश्चिमान्यसतो दुःखालोकानि मधूकपुष्पाणि । चितायां बन्धोरिवास्थोनि रोदनशोला समुच्चिनोति ।।] जिन्हें देखते ही हृदय आहत हो जाता है, झड़े हुये मधूफ के उन अवशिष्ट पुष्पों को आज रोती हुई व्यभिचारिणो बाला ऐसे चुन रही है जैसे कोई चिता ‘पर अपने बन्धु की अस्थियाँ चुनता हो ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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