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________________ गाथासप्तशती ओ हिअअ मडहसरिआजलरअहोरन्तदीहदारु व्व । ठाणे ठाणे विअ लग्गमाण केणावि डमिहसि ॥ ५॥ [हे हृदय स्वल्पसरिज्जलरयह्नियमाणदोर्घदारुवत् । स्थाने स्थाने एव लगत्केनापि धक्ष्यसे ॥] हे हृदय ! तुम उथली नदी की धारा में बहते हुये दीर्घकाष्ठ के समान स्थान स्थान पर रुकते हुये कहीं-न-कहीं अवश्य दग्ध हो जाओगे ।। ५ ।। जो तीऍ अहरराओ रत्ति उव्वासिओ पिअअमेण। सो विअ दोसइ गोसे सवत्तिणअणेसु संकन्तो ॥६॥ [ यस्तस्या अधररागो रात्रावुद्वासितः प्रियतमेन । स एव दृश्यते प्रातः सपत्नोनयनेषु संक्रान्तः ॥] रात्रि में प्रिय के अविरल चुम्बन से नायिका के अधरों की जो अरुणिमा हटः गई थी, वही सबेरे सपत्नियों के नेत्रों में संक्रान्त हो गई ॥ ६ ॥ गोलाअडट्ठिअं पेछिऊण गहवइसुअं हलिअसोण्हा । आढत्ता उत्तरिउं - दुःखुत्ताराएँ: पअवीए ॥७॥ [ गोदावरीतटस्थितं प्रेक्ष्य गृहपतिसुतं हलिकस्नुषा । आरब्धा उत्तरीतु दुःखोत्तारया पदव्या ॥] हलवाहे की वधू गृहपति के पुत्र को गोदावरी तट पर देख कर उस स्थान पर नदी पार करने लगी जहाँ उसको पार करना कठिन था ॥ ७ ॥ चलणोआसणिसण्णस्स तस्य भरिमो अणालवन्तस्स। पाअट्ठावेट्ठिअकेसदिढाअड्ढणसुहेल्लि ॥८ ॥ [चरणावकाशनिषण्णस्य तस्य स्मरामोऽनालपतः। पादाङ्गुष्ठावेष्टितकेशदृढाकर्षणसुखम् ॥] आज मुझे उस घटना की स्मृति आ रही है, जब वह मेरे चरणों पर चुपचाप पड़ा हुआ था। उस समय मैंने अपने अंगूठे में फंसे हुए उसके केशों को बलपूर्वक खींच-खींच कर कितनी सुखमय क्रीडा की थी ॥ ८॥ फालेइ अच्छभल्लं व उअह कूग्गामदेउलद्दारे। हेमन्तआलपहिओ विज्झाअन्तं पलागि ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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