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२७.
द्वितीय शतकम् [पाटयत्यच्छभल्लमिव पश्यत कुग्रामदेवकुलद्वारे।
हेमन्तकालपथिको विध्मायमानं पलालाग्निम् ।।] वह देखो, इस कुत्सित गाँव में मन्दिर के द्वार पर टिका हुआ हेमन्त-पथिक पयाल की बुझी हुई आग फूंक-फूंक कर यों जला रहा है, जैसे किसी भालू का पेट फाड़ रहा हो ॥ ९॥ कमलाअरा ण मलिआ हंसा उड्डाविआ ण अ पिउच्छा । - केणॉवि गामतडाए, अब्भं उत्ताण व्यूढं ॥१०॥ [ कमलाकरा न मृदिता हंसा उड्डायिता न च पितृष्वसः।
केनापि ग्रामतडागे अभ्रमुत्तानितं क्षिप्तम् ।। फूफी ! किसी ने गांव के सरोवर में आकाश ( या मेघ ) को उतान कर फेंक दिया है, किन्तु न तो कमलों का मर्दन हुआ और न हंस हो उड़े ॥ १० ॥ केण मणे भग्गमणोरहेण संलावि पवासो त्ति । सविसाई व अलसाअन्ति जेण बहुआएँ अजाई ॥११॥
[ केन मन्ये भग्नमनोरथेन संलापितं प्रवास इति ।
सविषाणीवालसायन्ते येन न वध्वा अङ्गानि ।।] किस अभागे ने प्रवास का नाम ले लिया, जिसे सुनकर बहू के अंग यों शिथिल हो गये हैं जैसे उसे विष दे दिया गया हो ॥ ११ ॥
अञ्जवि बालो दामोअरोति इअ जम्पिए जसोआए । कलमुहपेसिअच्छं णिहुअं हसिों वअवहूहिं ॥१२॥
[ अद्यापि बालो दामोदर इति इति जल्पिते यशोदया।
कृष्णमुखप्रेषिताक्षं निभृतं हसितं व्रजवधूभिः ।।] "अब भो मेरा ‘दामोदर' निरा बालक हो है" यशोदा के यह कहने पर व्रज की बधूटियां कृष्ण के मुंह पर आँखें डाले घोरे से छिप कर हँस पड़ीं ॥१२॥ ते विरला सप्पुरिसा जाण सिणेहो अहिण्णमुहराओ। अणुदिअह वड्ढमाणो रिणं व पुत्तेसु संकमइ ॥ १३ ॥ [ ते विरलाः सत्पुरुषा येषां स्नेहोऽभिन्नमुखरागः ।
अनुदिवसवर्धमान ऋणमिव पुत्रेषु संक्रामति ।।]
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