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गाथासप्तशती
वे सत्पुरुष संसार में कम हैं, जिनका प्रेम मुख की प्रसन्नता में कमी नहीं करता, अनुदिन बढ़ता हुआ ऋण की तरह पुत्रों में संक्रान्त हो जाता है ॥ १३ ॥
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णच्चणसलाहणणिहेण पासपरिसंठिआ णिउणगोवी । सरिस गोंविआण चुम्बइ कवोलपडिमागअं कण्हं ॥ १४ ॥ [ नर्तनश्लाघननिभेन पार्श्वपरिसंस्थिता निपुणगोपी । सदृशगोपीनां चुम्बति कपोलप्रतिमागतं कृष्णम् ॥ ]
नृत्य की श्लाघा के व्याज से निपुण गोपी पार्श्व में स्थित अपनी सहेली के - कपोल पर प्रतिबिंबित कृष्ण को चूम रही है ॥ १४ ॥
सव्वत्य दिसामुहपसाँरिएहि अण्णोष्णकडअलग्गेह । छल्लिब्ध मुअइ विझो मेहेहि विसंघडन्तहि ॥ १५ ॥ [ सर्वत्र दिशामुखप्रसूतेरन्योन्यकटकलग्नेः ।
छल्लीमिव मुञ्चति विन्ध्या मेघैविसंघटमानैः ॥ ]
एक दूसरे के शृंगों से संलग्न एवं दिशाओं में सर्वत्र फैले हुये मेघों के - विघटित होने से विन्ध्याचल ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह अपना वल्कल उतार • रहा हो ॥ १५ ॥
आलोअन्ति पुलिन्दा पव्वअसिहरट्टिआ धणुणिसण्णा । हत्थिउलेहिं व विज्झं पूरिज्जन्तं णवब्भेहिं ॥ १६ ॥
[ आलोकयन्ति पुलिन्दाः पर्वतशिखरस्थिता धुनुर्निषण्णाः । हस्तिकुलेरिव विन्ध्यं पूर्यमाणं नवाभ्रैः 1]
शैल-शृंग पर धनुष टेक कर बैठे हुये पुलिन्द, गजराजों के समूह के समान - नवीन मेघों से व्याप्त विन्ध्याचल की छटा देख रहे हैं ॥ १६ ॥
वणदवमसिमइलङ्गी रेहइ विञ्झो गणेहिं धवलेहि । खीरोअमन्थण च्छलिअदुद्धसित्तो व
[ वनदवमषीमलिनाङ्गो राजते विन्ध्यो क्षीरोदमथनोच्छलित दुग्धसिक्त इव
महुमहणो ॥ १७ ॥
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धनैर्धवलैः । मधुमथनः ॥ ]
दावानल के घुयें से मलिन विन्ध्य शैल शुभ्र * पर यों प्रतीत होता है जैसे क्षीरोदमन्थन से उच्छलित दुग्ध में स्नात भगवान्
मेघमाला से आच्छादित होने
विष्णु ॥ १७ ॥
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