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________________ द्वितोय शतकम् वन्दीअ णिहअबन्धवविमणाइ वि पक्कली ति चोरजुआ। अणुराएण पलोइऔं, गुणेसु को मच्छरं वहइ ॥१८॥ [ वन्द्या निहितबान्धवविमनस्कयापि प्रवोर इति चारयुवा । __ अनुरागेण प्रलोकितो गुणेषु को मत्सरं वहति ।। ] बान्धवों की हत्या से उदास वन्दिनी ने भी तरुण चोर को वोर जान कर अनुराग से देखा । गुणों से किसे द्वेष होता है ॥ १८ ॥ अज्ज कइमो वि दिअहो वाहवहू रूवजोवणुम्मत्ता। सोहागं धणुरुम्पच्छलेण रच्छासु विक्किरइ ॥ १९ ॥ [अद्य कतमोऽपि दिवसो व्याधवधू रूपयौवनोन्मत्ता।। सौभाग्यं धनुस्तष्टत्वक्छलेन स्थ्यासु विकिरति ।।] आज कितने दिनों से रूप और यौवन से मतवाली व्याघवधू पति द्वारा उठाने में अशक्य धनुष को हल्का करने के लिये छील कर गिराई हुई किर्च को अपने सौभाग्य के समान गलियों में बिखेर रही है ।। १९ ॥ उक्खिप्पइ मण्डलिमारुएण गेहाणाहि वाहीए। सोहग्गवअवडाअ व उअह धणुरुम्परिज्छोली ॥ २० ॥ [ उत्क्षिप्यते मण्डलीमारुतेन गेहाङ्गणाद्वयाधस्त्रियाः। सौभाग्यध्वजपताकेव पश्यत धनुः सूक्ष्मत्वक्पङ्क्तिः ।।] देखो, व्याध बधू के आंगन से उसके सौभाग्य की पताका के समान धनुष की सूक्ष्म किर्च को मण्डलाकार हवा उड़ा रही है ॥ २० ॥ गअगण्डस्थलणिहसणमअमइलोकअकरञ्जसाहाहि । एत्तीअ कुलहराओ गाणं वाहीअ पहमरणं ॥ २१ ॥ [गजगण्डस्थलनिघर्षणमदमलिनोकृतकरञ्जशाखाभिः । आगच्छन्त्या कुलगृहाज्ज्ञातं व्याधस्त्रिया पतिमरणम् ।। ] गजों के कपोल-कर्षण से छूटने वाले मद से मलिन करंज को शाखाओं को देख कर नहर से आती हुई व्याघ वधू को अपने पति को मृत्यु का आभास मिल गया ॥ २१ ॥ णववहुपेम्मतणुइओ पणअं पढमघरणोअ रक्खन्तो । आलिहिअदुष्परिल्लं पिइ रणं धगुवाहा ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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