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गाथासप्तशती
[ नववधूप्रेमतनूकृतः प्रणयं प्रथमगृहिण्या रक्षन् ।
तनकृतदुराकर्षमपि नयत्यरण्यं धनुयाधः ।। ] नववधु के प्रेम से दुर्बल होने पर भी पहली पत्नी के प्रणय की रक्षा करता हुआ व्याध उसके दिये हुये धनुष को--जो छील डालने पर भी दुराकर्ष था-वन में ले जाया करता था ॥ २२ ॥ हासाविओ जणो सामलोअ पढमं पसूअमाणाए । वल्लहवाएण अलं मम त्ति बहुसो भणन्तीए ॥ २३ ॥
[ हासितो जनः श्यामया प्रथमं प्रसूयमानया।
वल्लभवादेनालं ममेति बहुशो भणन्त्या ॥] षोडश वर्षीया सुकुमारी ने प्रथम बार प्रसव वेदना से आकुल होकर कहा-"अब मैं पति का नाम भी न लूगी" यह सुन कर सखियाँ हँस • पड़ीं ॥ २३ ॥
कइअवरहि पेम्म ण त्थि विअ मामि माणुसे लोए। अइ होइ कस्स विरहो विरहे होत्तमि को जिअइ ॥ २४ ॥ [ कैतवरहितं प्रेम नास्त्येव मातुलानि मानुषे लोके ।।
अथ भवति कस्य विरहो विरहे भवति को जीवति ।।] सखी ! मनुष्य लोक में निष्कपट प्रेम नहीं है । यदि होता तो किसी का किसी . से वियोग कैसे होता ? और यदि होता भी तो कौन जीवित रहता ! ॥ २४ ॥
अच्छेरे व णिहि विअसग्गे रज्जं व अमअपाणं व। आसि म्ह तं महत्तं विणिअंसणसणं तीए ॥ २५ ॥ [ आश्चर्यमिव निधिमिव स्वर्गे राज्यमिवामृतपानमिव ।
आसीदस्माकं तन्मुहूतं विनिवसनदर्शनं तस्याः ॥] मैंने जब नितान्त नग्नावस्था में उस सुन्दरी को देखा तब आश्चर्य में पड़ गया, उस क्षण ऐसा लगा जैसे कोई निधि मिल गई है, स्वर्ग का राज्य मिल गया है और अमृत पी लिया है ॥ २५ ॥ सातुज्झ वल्लहा तं सि मज्म वेसो सि तीअ तुज्म अहं । बालअ फुडं भणामो पेम्मं किर बहुविआरं ति ॥ २६ ॥
[सा तव वल्लभा त्वमसि मम द्वेष्योऽसि तस्यास्तवाहम। बालक स्फुटं भणामः प्रेम किल बहुविकारमिति ॥]
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