SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय शतकम् ३१ वह तुझे प्रिय है और तू मुझे । वह तुझसे घृणा करती है और तू मुझसे । बालक ! प्रेम में अनेक दोष होते हैं ॥ २६ ॥ अहअं लज्जालुइणी तस्स अ उम्मच्छराइँ पेम्माई । सहिआअणो वि पिउणो अलाहि किं पाअराएण ॥ २७ ॥ [ अहं लज्जालुस्तस्य चोन्मत्सराणि प्रेमाणि । ' सखीजनोऽपि निपुणोऽपगच्छ कि पादरागेण ॥] उनका प्रेम अत्यन्त उत्कट है और मैं लज्जाशील हूँ। सखियाँ भार्ण पटु है, हटो ! मेरे चरणों में यावक मत लगाओ ॥ २७ ॥ महुमासमारुआहअमहूअरझंकारणिभंरे रणे । गाअइ विरहक्खरॉबद्धपहिअमणमोहणं गोवी ॥२८॥ [ मधुमासमारुताहतमधुकरझंकारनिर्भरेऽरण्ये । गायति विरहाक्ष राबद्धपथिकमनोमोहनं गोपी ॥] वसन्त-पवन से आहत भ्रमरों की झंकार से पूर्ण कानन में कोई गोपी पथिकों को मोहने वाला, विरह के अक्षरों से ग्रथित, गीत गा रही है ॥ २८॥ तह माणो माणधणाएँ तीअ एमेअ दूरमणुबद्धो । जह से अणुणीअ पिओ एक्कग्गाम विअ पउत्थो ॥ २९ ॥ [ तथा मानो मानधनया तथा एवमेव दूरमनुबद्धः। यथा तस्या अनुनीय प्रिय एकग्राम एव प्रोषितः॥] उस मानधना सुन्दरी का मान अब इतना आगे बढ़ चुका है कि उसका 'प्रिय अनुनय-विनय करते-करते हार कर एक ही गांव में रहता हुआ भी प्रवासीसा हो गया है ॥ २९ ॥ सालोएं विअ सूरे घरिणी घरसामिअस्स घेत्तूण । ङ्गच्छन्तस्स वि पाए धुअइ हसन्ती हसन्तस्स ॥ ३०॥ [ सालोक एव सूर्ये गृहिणी गृहस्वामिनो गृहीत्वा । अनिच्छतोऽपि पादौ धावति हसन्ती हसतः ॥ ] अभी सूर्य का प्रकाश शेष है तो भी हँसती हुई गृहिणी हंसते हुए गृहस्वामो का पैर, उसकी अनिच्छा होने पर भी धो रही है ॥ ३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy