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द्वितीय शतकम्
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वह तुझे प्रिय है और तू मुझे । वह तुझसे घृणा करती है और तू मुझसे । बालक ! प्रेम में अनेक दोष होते हैं ॥ २६ ॥
अहअं लज्जालुइणी तस्स अ उम्मच्छराइँ पेम्माई । सहिआअणो वि पिउणो अलाहि किं पाअराएण ॥ २७ ॥
[ अहं लज्जालुस्तस्य चोन्मत्सराणि प्रेमाणि । ' सखीजनोऽपि निपुणोऽपगच्छ कि पादरागेण ॥]
उनका प्रेम अत्यन्त उत्कट है और मैं लज्जाशील हूँ। सखियाँ भार्ण पटु है, हटो ! मेरे चरणों में यावक मत लगाओ ॥ २७ ॥
महुमासमारुआहअमहूअरझंकारणिभंरे रणे । गाअइ विरहक्खरॉबद्धपहिअमणमोहणं गोवी ॥२८॥
[ मधुमासमारुताहतमधुकरझंकारनिर्भरेऽरण्ये ।
गायति विरहाक्ष राबद्धपथिकमनोमोहनं गोपी ॥] वसन्त-पवन से आहत भ्रमरों की झंकार से पूर्ण कानन में कोई गोपी पथिकों को मोहने वाला, विरह के अक्षरों से ग्रथित, गीत गा रही है ॥ २८॥ तह माणो माणधणाएँ तीअ एमेअ दूरमणुबद्धो । जह से अणुणीअ पिओ एक्कग्गाम विअ पउत्थो ॥ २९ ॥
[ तथा मानो मानधनया तथा एवमेव दूरमनुबद्धः।
यथा तस्या अनुनीय प्रिय एकग्राम एव प्रोषितः॥] उस मानधना सुन्दरी का मान अब इतना आगे बढ़ चुका है कि उसका 'प्रिय अनुनय-विनय करते-करते हार कर एक ही गांव में रहता हुआ भी प्रवासीसा हो गया है ॥ २९ ॥
सालोएं विअ सूरे घरिणी घरसामिअस्स घेत्तूण । ङ्गच्छन्तस्स वि पाए धुअइ हसन्ती हसन्तस्स ॥ ३०॥ [ सालोक एव सूर्ये गृहिणी गृहस्वामिनो गृहीत्वा ।
अनिच्छतोऽपि पादौ धावति हसन्ती हसतः ॥ ] अभी सूर्य का प्रकाश शेष है तो भी हँसती हुई गृहिणी हंसते हुए गृहस्वामो का पैर, उसकी अनिच्छा होने पर भी धो रही है ॥ ३०॥
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