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गाथासप्तशती
वाहरउ मं सहीओ तिस्सा गोत्तेण किं त्थ भणिएन । थिरपेम्मा होउ जहिं तहिं पि मा कि पिणं भणइ ॥ ३१ ॥ [ व्याहरतु मां सख्यस्तस्या गोत्रेण किमत्र भणितेन । स्थिरप्रेमा भवतु यत्र तत्रापि मा किमप्येनं भणत ॥ ]
वे मुझे सपत्नी के नाम से पुकारते हैं, तो पुकारने दो, सखी ! तुम कुछ मत कहना | उनका प्रेम कहीं भी तो स्थिर हो जाय ।। ३१ ।।
रूअं अच्छीसु ठिअं फरिसो अङ्गेसु जम्पिअं कण्णे ।
हिअअं हिअए मिहिअं विओइअं कि त्थ देव्वेण ॥ ३२ ॥
[ रूपमक्ष्णोः स्थितं स्पर्शोऽङ्गेषु जल्पितं कर्णे । हृदयं हृदये निहितं वियोजितं किमत्र देवेन ॥ ]
उनका रूप आँखों में, स्पर्श अंगों में, वाणी कानों में और हृदय हृदय में समाया है । दैव ने वियोग किसका किया है ? ॥ ३२ ॥
साणे चिन्तामइअं काऊण पिअं णिमीलिअच्छीए । अप्पाणो उवऊढो पसिठिलवलआहिँ बाहाहि ॥ ३३ ॥
[ शयने चिन्तामयं कृत्वा प्रियं निमीलिताक्ष्या । आत्मा उपगूढः प्रशिथिलवलयाभ्यां बाहूभ्याम् ॥ ]
विरहिणी ने ध्यानावस्था में शैया पर प्रिय की कल्पना कर आँखें बन्द कर लीं, फिर जिनके कंकण शिथिल हो चुके थे उन भुजाओं से केवल अपना ही आलिंगन करके रह गई ॥ ३३ ॥
परिहूएण वि दिअहं घरघरभमिरेण अण्णकज्जम्मि । चिरजीविएण इमिणा खविअह्म दड्ढकाएण ॥ ३४ ॥ [ परिभूतेनापि दिवसं गृहगृहभ्रमणशीलेनान्यकार्ये । चिरजीवितेनानेन क्षपिताः स्मो दग्धकायेन ॥ ]
अपमानित होकर भी पराये कार्य के लिये एक घर से दूसरे घर में घूमने वाले अन्नलोभी कौए के समान मैं अपने दीर्घजीवी पापी शरीर से ऊब गई हूँ ॥ ३४ ॥
वसइ जहि चेअ खलो पोसिज्जन्तो सिणेहदाणेहि ।
तं चेअ आलअं दोअओ व्व अइरेण महलेइ ॥ ३५ ॥
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