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द्वितीय शतकम् [ वसति तत्रैव खलः पोष्यमाणः स्नेहदानैः । ।
तमेवालयं दीपक इवाचिरेण मलिनयति ।] दुष्ट मनुष्य दोपक की तरह जहां भी स्नेहदान ( प्रेम या तेल ) से पुष्ट होता है, उसी गृह को मलिन कर देता है ॥ ३५ ॥
होन्ती वि णिप्फलच्चिअधणरिद्धी होइ किविणपुरिसस्स। गिह्माअवसंतत्तस्स णिअअछाहि व्व पहिअस्स ॥ ३६॥
[भवन्त्यपि निष्फलैव धनऋद्धिर्भवति कृपणपुरुषस्य ।
ग्रीष्मातपसंतप्तस्य निजकच्छायेव पथिकस्य ।। ] कुपण पुरुष के पास धन सम्पत्ति रहने पर भी वैसे ही व्यर्थ हो जाती है जैसे भीष्म के आतप से संतप्त पथिक की परछाईं ॥ ३६ ।
फुरिए वामच्छि तुए जइ एहिइ सो पिओ ज्ज ता सुइरं । संमोलिअ दाहिण तुइ अवि एहं पलोइस्सं ।। ३७ ॥ [ स्फुरिते वामाक्षि त्वयि यद्येष्यति स प्रियोऽद्य तत्सुचिरम् ।
संमोल्य दक्षिणं त्वयैवैतं प्रेक्षिष्ये ॥] ___ अरी बायीं आँख ! यदि तेरे फड़कने पर मेरे परदेशी घर आ जायंगे तो दाहिनी आँख मूंद कर तुझसे ही उन्हें देर तक निहारती रहूँगी ॥ ३७ ॥
सुत्तअपउरम्मि गामे हिण्डन्ती तुह कएण सा बाला। पासअसारिव्व घरं घरेण कइआ वि खज्जिहि ॥ ३८ ॥
[शुनकप्रचुरे ग्रामे हिण्डमाना तव कृतेन सा बाला।
पाशकशारीव गृहं गृहेण कदापि खादिष्यते ॥] प्रचुर कुत्तों वाले गांव में तुम्हारे लिये चौपड़ की सार की तरह एक घर से दूसरे घर में भटकती हुई वह बाला पाशबद्ध सारिका की भांति कभी-न-कभी खा डाली जायगी ॥ ३८॥
अण्णण्णं कुसुमरसं जं किर सो महइ महुअरो पाउं । तं णिरसाण दोसो कुसुमाणं अ भमरस्स ॥३९॥ [अन्यमन्यं कुसुमरस यत्किल स इच्छति मधुकरः पातुम् । तन्नीरसानां दोषः कुसुमानां नैव भ्रमरस्य ।।]
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