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गाथासप्तशती
भ्रमर एक पुष्प को त्याग कर रसपान की इच्छा से अन्य पुष्प पर बैठ जाता -यह नीरस पुष्पों का ही दोष है, भ्रमर का नहीं ॥ ३९ ॥ रत्थापइण्णणअणुष्पला तुमं सा पडिच्छए एन्तं । दारणिहिएहिँ दोहिं वि मङ्गलकलसेहिँ व थर्णाहि ॥ ४० ॥ [ रथ्याप्रकीर्णनयनोत्पला त्वां सा प्रतीक्ष्यते आयान्तम् । द्वारनिहिताभ्यां द्वाभ्यामपि मङ्गलकलशाभ्यामिव स्तनाभ्याम् ॥ ] रया के भीतर कमल-सी सुन्दर आँखें बिछाये वह तुम्हारी प्रतीक्षा करती है । उसके दोनों पयोधर द्वार पर रखे मंगलकलश के समान प्रतीत होते हैं ॥ ४० ॥
३४
छिज्जए अङ्ग ।
तारुण्णं जा रुव्वइ ता छीणं जाव ता पीससिअं वराइअ जाव अ सासा पहुप्पन्ति ॥ ४१ ॥
[ तावद्रुदितं यावदुद्यते तावत्क्षीणं यावत्क्षीयतेऽङ्गम् । तावन्निःश्वसितं वराक्या यावत् [ च ] श्वासाः प्रभवन्ति ॥ ]
वह दुःखिनो जितना रो सकी, रोई, जितना दुर्बल हो सकी, हुई, और जितना हो सका उतनी लम्बी साँसें ले चुकी है ॥ ४१ ॥
समसोक्खदुक्ख परिवआिण कालेण रूढपेम्माणं । मिहुणाणं मरइ जं तं खु जिअइ इअरं मुअं होइ ॥ ४२ ॥ [ समसौख्यदुःखपरिवर्धितयोः कालेन रूढप्रेम्णोः । मिथुनयोम्रियते यत्तत्खलु जीवति इतरन्मृतं भवति ॥ ]
जो अपना सुख-दुःख एक मान कर रहते आये हैं और समय पाकर जिनका प्रेम पूर्ण पल्लवित हो चुका है, उन दम्पतियों में जिसकी मृत्यु पहले हो जाती है वह तो जीवित रहता है और जो जीवित रहता है, उसकी मृत्यु हो जाती है ॥ ४२ ॥
हरिहिइ पिअस्स णवचूअपल्लवौ पढममञ्ज रिसणाहो ।
मा रुवसु पुत्ति पत्थाणकलसमुहसंठिओ गमणं ॥ ४३ ॥ [ हरिष्यति प्रियस्य नवचूतपल्लवः प्रथममञ्जरीसनाथः । मा रोदी: पुत्रि प्रस्थानकलशमुखसंस्थितो गमनम् ॥ ] रोती क्यों हो बेटी ? प्रयाण के समय मंगल-घट पर रखा हुआ नई मंजरी से युक्त रसाल पल्लव ही प्रिय को परदेश न जाने देगा ॥ ४३ ॥
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