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द्वितीय शतकम् जो कहँ वि मह सहीहिं छिदं लहिऊण पेसिओ हिआए। सो माणो चोरिअकामुअ व्व दिठे पिए गट्ठो ॥४४॥
[यः कथमपि मम सखीभिश्छिद्रं लब्ध्वा प्रवेशितो हृदये ।
स मानश्चोरकामुक इव दृष्टे प्रिये नष्टः ।। ] सहेलियों ने किसी प्रकार छिद्र देख कर जिसे मेरे हृदय में बैठा दिया था, वही मान प्रिय को देखते ही चोर-कामुक की भांति न जाने कहां सरक गया ।। ४४ ।। सहिआहि भण्णमाणा थणए लग्गं कुसुम्भपुष्पं त्ति । मुद्धबहुआ हसिज्जइ पफोडन्ती णहवआई॥४५॥
[ सखीभिर्भण्यमाना स्तने लग्नं कुसुम्भपुष्पमिति ।
मुग्धवधूहस्यते प्रस्फोटयन्ती नखपदानि ॥] सखियों ने कहा-"तेरे स्तन पर कुसुम्भ पुष्प लगा है।" यह सुनकर मुग्धा-वधू जब नखचिह्न को झाड़ने लगी तब वे सखियाँ हँस पड़ीं ॥ ४५ ॥
उन्मूलेन्ति व हिअअं इमाई रे तुह विरज्जमाणस्स । अवहीरणवसविसंठुलवलन्तणअणद्धदिट्ठाई ॥४६॥ [उन्मूलयन्तीव हृदयं इमानि रे तव विरज्यमानस्य ।
अवधीरणवशविसंष्ठुलवलन्नयनार्धदृष्टानि ॥] मुझसे विरक्त होनेवाले ! तेरे नयनों की अनादर के कारण शून्य, पराङ्मुख एवं विवर्तित अधूरी दृष्टियाँ मेरे हृदय को उन्मूलित कर रही हैं ॥ ४६ ॥ ण मुअन्ति दोहसासंग रुअन्ति चिरंण होंन्ति किसिआओ। 'घण्णाओं ताओ जाणं बहुवल्लह वल्लहो ण तुमं ॥४७॥
[न मुञ्चन्ति दीर्घश्वासान्नरुदन्ति चिरं न भवन्ति कृशाः।
धन्यास्ता यासां बहुवल्लभ वल्लभो न त्वम् ॥] वे देवियाँ धन्य हैं, जिन्होंने तुम्हारे जैसे बहुवल्लभ पुरुष से प्रेम नहीं किया है। वे न तो दीर्घ उच्छवास ही छोड़ती है, न देर तक रोती हैं और न दुर्बल ही होती है ।। ४७ ॥ णिद्दालसपरिघुम्मिरतंसवलन्तद्धतारआलोआ । कामस्स वि दुविवसहा विट्ठिगिआवा ससिमुहीए ॥४८॥
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