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गाथासप्तशती [निद्रालसपरिघूर्णनशीलतिर्यग्वलदर्धतारकालोकाः ।
कामस्यापि दुर्विषहा दृष्टिनिपाताः शशिमुख्याः ।।] निद्रा के आलस्य से आपूणित, तिर्यक् चलने वाली आधी पुतलियों की चपल चितवन वाले तेरे कटाक्ष अनंग के लिये भी असह्य हैं ॥ ४८ ॥ जीविअसेसाइ मए गमिआ फहँ कहँ वि पेम्मदुद्दोली। एण्हि विरमसु रे डढहिअअ मा रज्जसु कहिं पि ॥ ४९ ।। [ जीवितशेषया मया गमिता कथं कथमपि प्रेमदुर्दोली।
इदानीं विरम रे दग्धहृदय मा रज्यस्व कुत्रापि ॥ ] इतने दिनों से किसी प्रकार प्रणय की ग्रंथि सम्भालती आ रही हैं। मेरे प्राण-मात्र शेष रह गये हैं। हृदय ! अब तुम रुक जाओ, कहीं भी अनुरक्त मत होता ॥ ४९ ॥
अज्जाएँ णवणहक्खअणिरीक्खणे गरुअजोव्वणुत्तुङ्ग । पडिमागअणिअणअणुप्पलच्चिअं होइ थणवळें ॥ ५० ॥
[आर्याया नवनखक्षतनिरीक्षणे गुरुयौवनोत्तुङ्गम् ।।
प्रतिमागतनिजनयनोत्पलार्चितं भवति स्तनपृष्ठम् ।। ] प्रगाढ़ यौवन से उन्नत पयोधर पर अंकित नवीन नख-चिह्न को देखते समय उस पर नायिका के नेत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता था जैसे दो कमलों से उसकी अर्चना की गई हो ॥ ५० ॥ तं मह जस्स वच्छे लच्छिमुहं कोत्थहम्मि संकन्तं । दीसइ मअपरिहोणं ससिबिम्बं सूरबिम्ब व्व ।। ५१ ॥
[तं नमत यस्य वक्षसि लक्ष्मोमुखं कौस्तुभे संक्रान्तम् ।
दृश्यते मृगपरिहीनं शशिबिम्बं सूर्यबिम्ब इव ॥] जिसके वक्षस्थल पर कौस्तुभमणि में प्रतिबिम्बित लक्ष्मी का मुख रविमण्डल में प्रविष्ट निष्कलंक चन्द्र सा प्रतीत होने लगता है, उसे नमस्कार कीजिये ॥५१॥
मा कुण पडिवक्खसुहं अणुणेहि पिअं पसाअलोहिल्लं । अइगहिअगरुअमाणेण पुत्ति रासि व्व छिज्जिहिसि ॥ ५२ ॥ [मा कुरु प्रतिपक्षसुखमनुनथ प्रियं प्रसादलोभयुतम् । अतिगृहीतगुरुकमानेन पुत्रि राशिरिव क्षीणा भविष्यसि ।।]
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