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द्वितीय शतकम् __ प्रसाद-लोभी प्रियतम का अनुनय करो। प्रतिपक्षियों को प्रसन्न होने का अवसर मत दो। तुम भारी मान से अन्न की राशि के समान क्षीण हो जाओगी ।। ५२ ॥ विरहकरवत्तदूसहफालिज्जन्तम्मि तीअ हिअअम्मि। अंसू कज्जलमइलं पमाणसुत्तं व्व पडिहाइ ॥ ५३ ॥ [विरहकरपत्रदुःसहपाट्यमाने तस्या हृदये ।
अश्रु कज्जलमलिनं प्रमाणसूत्रमिव प्रतिभाति ।।] विरहरूपी आरी से चीरते समय उसके वक्ष पर बहती हुई अंजन-मिश्रित अश्रुधारा प्रमाणसूत्र सो प्रतीत होती है ।। ५३ ॥
दुण्णिक्खेवअमेअं पुत्तम मा साहसं करिज्जासु । एत्थ णिहिताई मण्णे हिअआइ पुण्णे ण लब्भन्ति ॥ ५४॥ [ दुनिक्षेपकमेतत्पुत्रक मा साहसं करिष्यसि ।
अत्र निहितानि मन्ये हृदयानि पुनर्न लभ्यन्ते । ] उसके पास हृदय रूपी धरोहर रखने का दुस्साहस मत करो। बेटा ! यहाँ रक्खे हुए हृदय' फिर वापस नहीं मिलते ॥ ५४ ।। णिन्वुत्तरआ वि वहू सुरअविरामढिई अआणन्तो। अविरअहिअआ अण्णं पि कि पि अस्थि ति चिन्तेइ ॥ ५५ ॥
[निवृत्तरतापि वधूः सुरतविरामस्थितिमजानंती। ___ अविरतहृदयान्यदपि किमप्यस्तीति चिन्तयति ॥] रति के समाप्त हो जाने पर भी, उसकी समाप्ति कैसे की जाती है, यह न जानने वाली वधू का अनुरक्त हृदय विराम नहीं ले रहा था। वह सोचतो थो शायद अभी कुछ और शेष है ।। ५५ ॥
णन्दन्तु सुरअसुहरसतलावहराई सअललोअस्स । बहुकैअवमग्गविणिम्मिआई वेसाण पेम्माई॥५६॥
[नन्दन्तु सुरतसुखरसतृष्णापहराणि सकललोकस्य ।
बहुकैतवमार्गविनिमितानि वेश्यानां प्रेमाणि ।।] जो सभी प्रकार के लोगों की सुरत-काम-क्रीड़ा को शान्त करते हैं तथा "जिनका निर्माण छल-पाखंड से पूर्ण है, वारांगनाओं की वे प्रेम-क्रीड़ाएँ सदैव विजयो हो ॥५६॥
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