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गाथासप्तशती अप्पत्तमण्णुदुक्खो कि मं किसिअत्ति पुन्छसि हसन्तो। पावसि जइ चलचित्तं पिअं जणं ता तुह कहिस्सं ॥५७॥
[अप्राप्तमन्युदुःख किं मां कशेति पृच्छसि हसन् ।
प्राप्स्यसि यदि चलचित्तं प्रियं जनं तदा तव कथयिष्यामि ॥] तुम दुबली हो-यह हँसकर क्यों पूछ रही हो? तुमने पराई पीर का अनुभव ही कब किया है ? जिस दिन किसी चंचल चित्त वाले प्रेमी से तुम्हारी भेंट हो जायगी तो बता दूँगी ।। ५७ ॥
अवहत्थिऊण सहिजम्पिआईं-जाणं कएण रमिओसि । “ एआई ताई सोक्खाई संसओ जेहिं जीअस्स ॥ ५८ ॥
[ अपहस्तयित्वा सखीजल्पितानि येषां कृते न रमितोऽसि ।
एतानि तानि सैख्यानि संशोय यैर्जीवस्य ॥] सखियों की बातें न मान कर, जिनके लिये तुमसे रमण किया था, मेरे प्राणों को संशय में डालने वाले ये वे ही सुख हैं ॥ ५८ ।।
ईसालुओ पई से रत्ति महुअं ण देइ उच्चेउं । उच्चेइ अप्पण चिअ माए अइउज्जुनसुहाओ ॥ ५९॥ [ ईर्ष्याशीलः पतिस्तस्या रात्रौ मधूकं न ददात्युच्चेतुम् ।
उच्चिनोत्यात्मनैव मातरतिऋजुकस्वभावः ।।] उसका ईष्यालु पति उसे रात को मधूक-पुष्प का चयन नहीं करने देता । वह इतना सरल-स्वभावी है कि स्वयं चुन लेता है ।। ५९ ॥
अच्छोडिअवत्थद्धन्तपत्थिए मन्थरं तुमं वच्च ।। चिन्तेसिन्थणहराआसिअस्स मज्झस्स वि ण भङ्गं ॥६० ॥
[ बलादाकृष्टवस्त्रार्धान्तप्रस्थिते मन्थरं त्वं व्रज ।
चिन्तयसि स्तनभरायासितस्य मध्यस्यापि न भङ्गम् ॥] बलात् अंचल का छोर छड़ा कर जाने वाली ! धीरे-धीरे जाओ । क्या तुम्हें अपनी कटि की चिन्ता नही है, जो पयोघरों के भार से दब कर टूट जायगी? ॥ ६०॥
उवच्छो पिअइँ जलं जह जह विरलगुली चिरं पहिओ। पावालिया वि तह तह धारं तणुई पि तणुएइ ॥ ६१ ॥
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