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________________ द्वितीय शतकम् [ ऊर्वाक्षः पिबति जलं यथा यथा विरलाङ्गलिश्चिरं पथिकः । प्रपापालिकापि तथा तथा धारां तनुकामपि तनूकरोति ।।] तुषित पथिक आँखें ऊपर किये शिथिल अंजलि से पानी पीने में जैसे-जैसे विलम्ब करता जाता था वैसे-वैसे पिलाने वाली भी पानी की पतली धार और भी पतली करती जा रही है ॥ ६१॥ भिच्छाअरों पेच्छइ णाहिमण्डलं सावि तस्स मुहअन्दं । तं चटुअं अ. करडूं दोह वि काआ विलुम्पन्ति ॥ ६२॥ [भिक्षाचरः प्रेक्षते नाभिमण्डलं सापि तस्य मुखचन्द्रम् । तच्चटुकं च करकं द्वयोरपि काका विलुम्पन्ति ॥] भिक्षुक वधू की अधखुली नाभि को निहार रहा है और वह उसके मुख चन्द्र को। इस तन्मयता में उनके कलघी और भिक्षापात्र का अन्न कौए खा गये हैं ।। ६२॥ जेण विणा ण जिविज्जइ अणुणिज्जइ सो कआवराहो वि। पत्ते वि अरदाहे भण कस्स ण वल्लहो अग्गी ॥ ६३ ॥ [येन विना न जीव्यतेऽनुनीयते स कृतापराधोऽपि । प्राप्तेऽपि नगरदाहे भण कस्य न वल्लभोऽग्निः ।। ] जिसके बिना जीवित रहना ही कठिन है, अपराध करने पर भी उसका अनुनय करना ही पड़ता है। सारे नगर को जला कर भस्म कर देने वाली आग किसे प्रिय नहीं होती? ॥ ६३ ॥ वेक्कं को पुलइज्जउ कस्स कहिज्जउ सुहं व दुक्खं वा। केण समं व हसिज्जउ पामरपउरे हअग्गामे ॥ ६४ ॥ [वकं कः प्रलोक्यतां कस्य कथ्यतां सुख वा दुःखं वा । केन समं वा हस्यतां पामरप्रचुरे हतग्रामे ।। ] वक्रवृष्टि से किसे देखें ? किससे सुख-दुख कहें ? दुष्टों के इस पापी गाँव में किससे हास-परिहास करें ॥ ६४ ॥ फलहीवाहणपुण्णाहमङ्गलं लङ्गले कुणन्तीए। असईअ मणोरहवब्भिणीम हत्था थरहरन्ति ॥ ६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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