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गाथासप्तशतो [ कार्पासोक्षेत्रकर्षणपुण्याहमङ्गलं लाङ्गले कुर्वत्याः।
असत्या मनोरथगभिण्या हस्तौ थरथरायते ॥] कपास का खेत जोतने के शुभ दिन, हल पर मांगलिक आलेपन करने वाली कुलटा के हाथ भविष्य की अनेक आकांक्षाओं की कल्पना से काँप उठे ।। ६५ ॥
पहिउल्लूरणसङ्काउलाहिँ असईहिं वहलतिमिरस्स । आइप्पणेण णिहुअं वडस्स सित्ताई पत्ताई ॥६६॥ [पथिकच्छेदनशङ्काकुलाभिरसतीभिर्बहलतिमिरस्य ।
आलेपनेन निभृतं वटस्य सिक्तानि पत्राणि ।।] टिकने वाले बटोही उसके पत्ते तोड़ न डाले-इस आशंका से कुलटा स्त्रियों ने अन्धकारमय वटवृक्ष के समस्त पत्तों पर लेप लगा दिया ।। ६६ ॥ भजन्तस्स वि तुह सग्गगामिणो णइकरज्जसाहाओ। पाआ अज्ज वि धम्मिअ तुह कहँ धरणि विह छिवन्ति ॥ ६७॥
[ भञ्जतोऽपि तव स्वर्गगामिनो नदीकरञ्जशाखाः।
पादावद्यापि धामिक तव कथं धरणीमेव स्पृशतः ।।] ऐंड़ी उठा कर नदी किनारे की करंज शाखा तोड़ने वाले पुजारी ! जान पड़ता है तुम अभी स्वर्ग चले जाओगे किन्तु पता नहीं अब भी तुम्हारे चरण पृथ्वी का ही स्पर्श क्यों कर रहे हैं ? ॥ ६७ ॥ अच्छउ दाव मणहरं पिआइ मुहदंसणं अइमहग्छ । तग्गामछेत्तसीमा वि झत्ति दिट्ठा सुहावेइ ॥ ६८ ॥ [ अस्तु तावन्मनोहरं प्रियाया मुखदर्शनमतिमहाघम् ।
तद्ग्रामक्षेत्रसीमापि झटिति दृष्टा सुखयति ।।] प्रिया के मुख के अमूल्य और मनोहर दर्शन दूर रहे, उसके गाँव के खेतों की सोमा को भी सहसा देखकर मैं आनन्द-मग्न हो जाता हूँ ॥ ६८ ।। णिक्कम्महि वि छेत्ताहि पामरो णेअ वच्चए वसई। मुअपिअजाआसुण्णइअगेहदुःक्खं परिहरन्तो ॥ ६९ ॥
[निष्कर्मणोऽपि क्षेत्रात्पामरो नैव व्रजति वसतिम् । मृतप्रियजायाशून्यीकृतगेहदुःखं परिहरन् ॥]
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