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गाथासप्तशती
नूतन रसाल-पल्लव देखे, मतवाली सुरा की गन्ध का अनुभव किया । दक्षिणपवन का घातक स्पर्श भी सह लिया। मामी संसार में कार्यों का ही अधिक गौरव है, प्रेमी कौन किसका है ? ॥ ९७ ॥ रमिऊण पपि गओ जाहे उवऊहिऊ पडिणिउत्तो। अहअं पउत्थपइआ व्व तक्खणं सो पवासि च ॥ ९८ ॥
[रन्त्वा पदमपि गतो यदोपगुहितु प्रतिनिवृत्तः। ___ अहं प्रोषितपतिकेव तत्क्षणं स प्रवासीव ॥] मेरे प्रिय रमण के पश्चात् जैसे ही एक डग बाहर गये कि आलिंगन को तृष्णा से पुनः लौट आये । क्षण भर के लिये वे प्रवासो थे और मैं प्रोषित पतिका ।। ९८ ॥
अविइण्हपेच्छणिज्जं समसुहदुःखं विइण्णसन्भावं । अण्णोण्ण हिअअलग्गं पुण्णेहिं जणो जण लहइ ॥ ९९ ॥ [ अवितृष्णप्रेक्षणीयं समसुखदुःखं वितीर्णसद्भावम् ।
अन्योन्यहृदयलग्नं पुण्यैर्जनो जनं लभते ।। ] जिन्हें देखने पर भी साध पूरी नहीं होती, जिनका सुख-दुःख एक हो गया है, जो सद्भाव प्रकट करते हैं, और जिनका परस्पर प्रगाढ़ अनुराग रहता है, लोग ऐसे प्राणियों को पुण्य से हो प्राप्त करते हैं ।। ९९ ॥
दुःखं देन्तो वि सुह जणेइ जो जस्स वल्लहो होइ । दइअणहणिआणं वि वड्ढइ थणाण रोमञ्चो ॥ १०० ॥
[ दुःखं दददपि सुखं जनयति यो यस्य वल्लभो भवति ।
दयितनखदूनयोरपि वर्धते स्तनयो रोमाञ्चः ॥] जो जिसे प्रिय लगता है उसका दुःखद व्यवहार भी सुखदायक हो जाता है । प्रिय के नखों से आहत होकर भी पयोधर आनन्द से पुलकित हो उठते हैं ॥१० ॥ रसिअजणहिअअइए कवइच्छलपमुहसुकइणिम्मविए । सत्तसअम्मि समत्तं पढम गाहासअं एअं॥१०॥ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिर्मिते ।
सप्तशतके समाप्तं प्रथमं गाथाशतकमेतत् ।।] जिनमें कविवत्सल हाल प्रमुख हैं उन कवियों द्वारा बनाये हुए, रसिकों के प्यारे सप्तशतक का प्रथम शतक पूर्ण हो गया ।। १०१ ॥
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