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॥ ९४॥
प्रथमं शतकम् [ अवितृष्णप्रेक्षणीयेन तत्क्षणं मातुलानि तेन दृष्टेन ।
स्वप्नपीतेनेव पानोयेन तष्णव न भ्रष्टा ॥] मामी ! उन्हें देख कर भी देखने की साध पूरी नहीं होती। स्वप्न के जलपान के समान उनके आकस्मिक दर्शन से मेरी तृष्णा शान्त नहीं हुई ॥ ९३ ॥ सुअणो जं देसमलंकरेइ, तं विअ करेइ पवसन्तो। गामासण्णुम्मूलिअमहावडट्ठाणसारिच्छं
[सुजनो यं देशमलंकरोति तमेव करोति प्रवसन् ।।
ग्रामासन्नोन्मूलितमहावटस्थानसदृशम् ] सज्जन जिस देश को अलंकृत करता है उसे ही अपने वियोग से गांव के निकट की उस भूमि के समान बना देता है, जिस पर छाया करनेवाला वट-वृक्ष काट डाला गया हो ।। ९४ ॥ सो णाम संभरिज्जइ पन्भसिओ जो खणं पि हिअआहि । संभरिअव्वं च कसं गअंच पेम्मं णिरालम्बं ॥९५॥
[स नाम संस्मयते प्रभ्रष्टो यः क्षणमपि हृदयात् ।
स्मर्तव्यं च कृतं गतं च प्रेम निरालम्बम् ॥ ] जो क्षण मात्र भी हृदय से पृथक् न हो, स्मरण उसी का किया जाता है। जहाँ प्रेमी की स्मृति बनाये रखने की आवश्यकता हो, वह प्रेम तो आश्रयहीन हो गया है ॥ ९५ ॥ णासं व सा कवोले अज्ज वि तुह दन्तमण्डलं बाला। भिण्णपुलअवइवेढपरिगअं रक्खइ वराई ॥ ९६ ॥
[न्यासमिव सा कपोलेऽद्यापि तव दन्तमण्डलं बाला। ___ उद्भिन्नपुलकवृत्तिवेष्टपरिगतं रक्षति वराको ।। ] उस बाला ने कपोल पर उद्भिन्न पुलकों के वेष्ठन में तुम्हारा दन्नक्षत न्यास की तरह आज भी सुरक्षित रखा है ॥ ९६ ।। टिट्ठा चूआ, अग्धाइआ सुरा, दक्षिणाणिलो सहिओ। कज्जाइं विवअ गरुआईं, मामि ! को वल्लहो कस्स ? ॥९७॥ [ दृष्टाश्चूता आघ्राता सुरा दक्षिणानिलः सोढः। कार्याण्येव गुरुकाणि मातुलानि को वल्लभः कस्य ।।]
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