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________________ गाथासप्तशती मुहमारुएण तं कण्ह गोरअं राहिआएँ अवणेन्तो। एताण वल्लवीणं अण्णाण वि गोरअं हरसि ॥ ८९ ।। [ मुखमारुतेन त्वं कृष्ण गोरजो राधिकाया अपनयन् । एतासां वल्लवीनामन्यासामपि गौरवं हरसि ।। ] कृष्ण ! तुम अपने मुख-मारुत से राधा के नेत्रों की धलि ( गोरज) दूर करते हुए वल्लवियों का गौरव भी दूर कर देते हो ।। ८९ ॥ । कि दाव कआ अहवा करेसि कारिस्सि सुहअ एत्ता हे। अवराहाणं अल्लज्जिर साहसु कअए खमिज्जन्तु ॥९॥ [किं तावत्कृता अथवा करोषि करिष्यसि सुभगेदानीम् ।। अपराधानामलज्जाशील कथय कतरे क्षम्यन्ताम् ।] निर्लज्ज ! तुमने जो अपराध किये हैं, जो कर रहे हो तथा जो भविष्य में करोगे, बताओ, उनमें से कौन सा क्षमा कर दूं ॥ ९० ॥ णूमेन्ति जे पहुत्तं कुविअं दासा व्व जे पसाअन्ति । ते ग्विअ महिलाणं पिआ सेसा सामि विअ वराआ ॥९१॥ [गोपायन्ति ये प्रभुत्वं कुपितां दासा इव ये प्रसादयन्ति । त एव महिलानां प्रियाः शेषाः स्वामिन एव वराकाः ।। ] ___ जो अपना स्वामित्त्व प्रकट नहीं करते तथा कुपित हो जाने पर दास को भांति मनाया करते हैं, वे ही पुरुष तो महिलाओं को प्रिय होते हैं, शेष केवल पति कहलाने के पात्र है ॥ ९१ ॥ तइआ कअग्ध महुअर ! ण रमसि अण्णासु पुष्फजाईसु। बद्धफलभारिगुरुई मालइँ एहि परिच्चअसि ॥ ९२॥ [ तदा कृतार्घ मधुकर न रमसेऽन्यासु पुष्पजातिषु । बद्धफलभारगुर्वी मालतीमिदानी परित्यजसि ।। ] मधुकर ! जिससे तृप्त होकर अन्य जाति के पुष्पों से रमण नहीं करते थे, अब फलों के भार से झुकी हुई उसी मालती को त्याग रहे हो ॥ ९२ ॥ अविअण्हपेक्खणिज्जेण तक्खणं मामि ! तेण दिgण । सिविणअपीएण व पाणिएण तण्ह विअ ण फिट्टा ॥ ९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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