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प्रथमं शतकम्
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सुन्दर पत्नी वाला वह हलिक पुत्र तेरे लिये इतना क्षीण हो गया है कि उसकी ईर्ष्यालु पत्नी ने भी दूती बनना स्वीकार कर लिया ॥ ८४ ॥
दक्खिणेण वि एन्तो सुहअ सुहावास अम्ह हिअआई । णिक्कइअवेण जाणं गओसि का णिव्वदी ताणं ॥ ८५ ॥ [ दाक्षिण्येनाप्यागच्छन्सुभग सुखयस्यस्माकं हृदयानि । निष्कैतवेन यासां गतोऽसि का
निर्वृतिस्तासाम् ॥ ]
तुम मन में कपट रखकर आते हो तो भी हमारे हृदयों को आनंदित कर हो, जिनके साथ तुम्हारा निष्कपट प्रेम होगा उनकी तृप्ति का क्या कहना है ॥ ८५ ॥
एक्कं
पहरुब्विण्णं हृत्थं मुहमारुएण वोअन्तो ।
सो वि हसन्तीए मए गहिओ बीएण कण्ठम्मि ॥ ८६ ॥
[ एकं प्रहारोद्विग्नं हस्तं मुखमारुतेन वीजयन् । सोऽपि हसन्त्या मया गृहीतो द्वितीयेन कण्ठे ॥ ]
जब मैंने उन्हें थप्पड़ से मार दिया तो वे मेरा पीड़ित हाथ पकड़ कर मुँह - से। फूँकने लगे । उस समय मैंने भी हँस कर दूसरे बाहु से उनका आलिंगन कर "लिया ।। ८६ ।।
अवलम्बिअमाणपरम्मुहोएँ एन्तस्स माणिणि पिअस्स । पुट्ठपुल उग्गमो तुह कहेइ संमुहट्ठिअं हिअअं ॥८७॥ [ अवलम्बितमानपराङ्मुख्या आगच्छतो मानिनि प्रियस्य । पृष्ठपुलको नमस्तव कथयति सम्मुखस्थितं हृदयम् ॥ ] मानिनी ! तू यद्यपि प्रिय के आने पर रूठ कर मुँह फिराये बैठी है, फिर भी तेरी रोमांचित पीठ बतला रही है कि तेरा हृदय सम्मुख है ॥ ८७ ॥
जाणइ जाणावेउं अणुणअविद्दविअमाणपरिसेसं । अरिक्कम्मि वि विणआवलम्बणं सच्चि कुणन्ती ॥ ८८ ॥
[ जानाति ज्ञापयितुमनुनयविद्रावितमानपरिशेषम् । विजनेऽपि विनयावलम्बनं सैव कुर्वती ॥ ]
एकान्त में भी निश्चेष्ट रह कर सुन्दरी नायिका यह बतलाना चाहती है कि अनुनय-विनय के पश्चात् भी मान का कुछ अंश शेष रह गया है ॥ ८८ ॥
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