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गाथासप्तशती
व्हाणहलिद्वाभरिअन्तराइँ जालाइँ जालवलअस्स । सोहन्ति किलिञ्चिअकण्टएण कं काहिसी कअत्थं ॥ ८० ॥ [ स्नानहरिद्राभरितान्तराणि जालानि जालवलयस्य । शोधयन्ती क्षुद्रकण्टकेन कं करिष्यसि कृतार्थम् ॥ ]
नहाते समय हल्दी से भरे हुये जालीदार कंकण को बाँस के कांटे से साफ करती हुई तू किसे कृतार्थं करेगी ॥ ८० ॥
अदंसणेण पेम्मं अवेइ अइदंसणेण वि अवेह | पिसुणजणजम्पिएण वि अवेइ एमेअ वि अवेइ ॥ ८१ ॥ [ अदर्शनेन प्रेमा पैत्यतिदर्शनेनाप्यपैति ।
पिशुन जनजल्पितेनाप्यपैत्येवमेवाप्यपैति ।। ]
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प्रेम अदर्शन से नष्ट हो जाता है और अतिदर्शन से भी । पिशुनों के सम्भाषण से भी नष्ट हो जाता है और अकारण भी ।। ८१ ॥
अदंसणेण महिलाअणस्स अइदंसणेण णोअस्स । मुक्खस्स पिसुणअणजम्पिएण एमेअ वि खलस्स ॥ ८२ ॥ [ अदर्शनेन महिलाजनस्यातिदर्शनेन नीचस्य | मूर्खस्य पिशुनजन जल्पितेनैवमेवापि खलस्य ॥ ]
महिलाओं का प्रेम अदर्शन से, नीचों का अतिदर्शनसे, मूर्खो का पिशुनों के सम्भाषण से एवं खलों का अकारण हो नष्ट हो जाता है ।। ८२ ।। पोटृपडिएहिं दुःखं अच्छिज्जह उण्णएहि होऊण । इअ चिन्तआणं मण्णे यणाणं कसणं मुहं जाअं ॥ ८३ ॥ [ उदरपतिताभ्यां दुःखं स्थीयत उन्नताभ्यां भून्वा । इति चिन्तयतोर्मन्ये स्तनयोः कृष्णं मुखं जातम् ॥ ]
पहले उन्नत होकर फिर पेड़ का आश्रय ले लेना कितना दुखद है, मानों यही सोचकर पयोधरों का मुख श्याम हो गया ॥ ८३ ॥
सो तुज्झ कए सुन्दरि तह छीणो सुमहिला हलिअउत्तो । जह से मच्छरिणीएँ वि दोच्चं जाआएँ पडिवण्णं ॥ ८४॥ [ स तव कृते सुन्दरि तथा क्षीणः सुमहिलो हालिकपुत्रः । यथा । तस्य मत्सरिण्यापि दौत्यं जायया प्रतिपन्नम् ॥ ]
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