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________________ प्रथमं शतकम् [पश्य पद्मरागमरकतसंवलिता नभस्तलादवतरति । नभःश्रीकण्ठभ्रष्टेव कण्ठिका कीरपंक्तिः ॥] देखो, आकाश से शुकों की पंक्ति उतर रही है, जैसे आकाश से लक्ष्मी का ‘पद्मराग एवं मरकत मणि से बना हुआ कोई कंठभरण च्युत हो गया हो ।। ७५ ।। ण वि तह विएसवासो दोग्गच्चं मह जणेइ संतावं । आसंसिअत्थविमणो जह पणइजणो णिअत्तन्तो ।। ७६ ॥ [नापि तथा विदेशवासो दौर्गत्यं मम जनयति सन्तापम् । __ आशंसितार्थविमना यथा प्रणयिजनो निवर्तमानः ।। ] कत्सित गाँव का निवास और दरिद्रता भी मुझे उतनी दुःखदायक नहीं है, जितना अभिलपितार्थ से वंचित होकर निराश लौटने वाला प्रेमी ॥ ७६ ॥ खन्धग्गिणा वणेमु तणेहि गामम्मि रक्खिओ पहिओ। अरवसिओ गडिज्जइ साणुसएण व्व सीएण ॥ ७७ ॥ [स्कन्धाग्निना वनेषु तृणैामे रक्षितः पथिकः । नगरोषितः खेद्यते सानुशयेनेव शीतेन ॥] वनों में काठ एवं गांवों में तृणों से सुरक्षित पथिक को नगर में जाने पर शीत मानो पुराने वैर को याद कर कष्ट देने लगता है ।। ७७ ।। भरिमो से गहिआहरधुअसोसपहोलिरालआउलिअं। वअणं परिमलतरलिअभमरालिपइण्णकमलं व ॥ ७८ ॥ [स्मरामस्तस्या गृहीताधरधुतशीर्षप्रघूर्णनशीलालकाकुलितम् । वदनं परिमलतरलितभ्रमरालिप्रकीर्णकमलमिव ।।] चुम्बन के समय अधरों का ग्रहण करने पर चंचल शोश पर लहराती हुई अलकों से व्याप्त उसका सुगन्ध में डूबा भ्रमर-मंडित कमल सा मनोहर मुख याद आ रहा है ॥ ७८॥ हल्लफलण्हाणपसाहिआणे छणवासरे सवत्तीणं । अज्जाएँ मज्जणाणाअरेण कहि व सोहग्गं ।। ७९ ॥ [ उत्साहतरलत्वस्नानप्रसाधितानां क्षणवासरे सपत्नोनाम् । आर्यया मज्जनानादरेण कथितमिव सौभाग्यम् ॥] उत्सव के दिन उत्साह से चंचल सपलियों ने नहा कर शृंगार किया, किन्तु उसने स्नान के प्रति उपेक्षा दिखला कर ही मानों अपने सौभाग्य की सूचना दे दी॥७९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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