SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ गाथासप्तशती जेत्तिअमेत्तं तीरइ णिव्वोढु देसु तेत्तिसं पण। ण अणो विणिअत्तपसाअदुक्खसहणक्खमो सब्बो ॥ ७१॥ __[यावन्मानं शक्यते निर्वोढुं देहि तावन्तं प्रणयम् । न जनो विनिवृत्तप्रसाददुःखसहनक्षमः सर्वः॥] तुम जितना निभा सको, मुझे उतना हो प्रेम प्रदान करना, क्योंकि सभी महिलायें प्रणय टूट जाने की व्यथा सहने में समर्थ नहीं होतीं ॥ ७१॥ बहुवल्लहस्स जा होइ वल्लहा कह वि पञ्च दिअहाई। सा कि छठें मग्गइ कत्तो मिटुं व बहुअं अ॥ ७३ ॥ [ बहुवल्लभस्य या भवति वल्लभा कथमपि पञ्च दिवसानि । सा किं षष्ठं मृगयते कुतो मृष्टं च बहुकं च ॥] जो पांच दिन भी अनेक महिलाओं में आसक्त पुरुष का प्रेम प्राप्त कर लेती है उन्हें छठे दिन का कामना ही नहीं होती। मीठा और कठौती भर किसे मिलता है ॥ ७२ ॥ जं जं सो णिशाअइ अलोआसं महं अणिमिसच्छो । पच्छाएमि अ तं तं इच्छामि अ तेण दोसन्तं ॥ ७३ ॥ . [ यद्यत्स निवा॑यत्यङ्गावकाशं ममानिमिषाक्षः। प्रच्छादयामि च तं तमिच्छामि च तेन दृश्यमानम् ॥] वह मेरे जिस-जिस अनावृत्त अंग को देखता था, मैं उसी उसी को ढक लेती थी, किन्तु जो चाहता था कि वह ऐसे ही देखता रहे ॥ ७३ ।। विढमण्णुदूणिआएँ वि गहिओ दइअम्मि पेच्छह इमाए। ओसरइ बालुआमुठिी उच्च माणो सुरसुरन्तो ॥ ७४ ॥ [ दृढमन्यु(नयापि गृहोतो दयिते पश्यतानया। अपसरति बालुकामुष्टिरिव मानः सुरसुरायमाणः॥] प्रणयी के प्रति अत्यन्त रोषपूर्वक किया हुआ मान उसके हृदय से मुट्ठी के बालू की भाँति सुरसुरा कर दूर होता जा रहा है ।। ७४ ।। उअपोम्मराअमरगअसंवलिआ णहअलाओं ओअरइ । णह सिरिकण्ठन्भद्र व्व कण्ठिआ कोररिज्छोली ॥ ७५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy