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प्रथमं शतकम्
हेमन्त की लम्बी रातों में तुम्हें अवश्य जी भर सोने को नहीं मिला । तुम चिरकाल से प्रवासी की पत्नी हो, अतः तुम्हारा दिन में सोना उचित नहीं
जइ चिक्खल्लभउप्पअपअमिणमलसाइ तुह पए दिण्णं । ता सुहअ कण्टइज्जन्तमंगमेण्हि किणो वहसि ॥ ६७ ॥ [ यदि कर्दमभयोत्प्लुतपदमिदमलसया तव पदे दत्तम् ।।
तत्सुभगकण्टकितमङ्गमिदानी किमिति वहसि ।।] यदि पंक के भय से, उस अलसाती-सी सुन्दरी ने उछल कर तुम्हारे पदचिह्न पर अपना चरण रख दिया तो तुम्हारे अंग पुलकित क्यों हो गये ।। ६७ ।। पत्तो छणो ण सोहइ अइप्पहा एण्व पुण्णिमाअन्दो । अन्तविरसो व्व कामो असंपआणो अ परिओसो ॥ ६८॥ [प्राप्तःक्षणो न शोभते अतिप्रभात इव पूर्णिमाचन्द्रः ।
अन्तविरस इव कामोऽसम्प्रदानश्च परितोषः ॥] बीता हुआ उत्सव और दान-शून्य परितोष, प्रभातकालिक चन्द्रमा और अन्त में विरस हो जाने वाले काम के समान सुशोभित नहीं होते ॥ ६८ ॥ पाणिग्गहणे विअ पवईए णा सहीहि सोहग्गं । पसुवइणा वासुइकङ्कणम्मि ओसारिए दूरं ।। ६९ ॥ [पाणिग्रहण एव पार्वत्या ज्ञातं सखीभिः सौभाग्यम् ।।
पशुपतिना वासुकिकङ्कणेऽपसारिते दूरम् ।।] विवाह-वेला में जब शिव ने वासुकी का कंकण अपने हाथसे दूर हटा दिया तभी सखियों को पार्वती के अक्षुण्ण सौभाग्य का आभास मिल गया था ।। ६९ ॥ गिटे दवग्गिमसिमइलिआई दीसन्ति विज्झसिहराई। आससु पउत्थवइए ण होन्ति णवपाउसब्भाइं ॥ ७० ॥ [ ग्रीष्मे दवाग्निमषीमलिनितानि दृश्यन्ते विन्ध्यशिखराणि ।।
आश्वसिहि प्रोषितपतिके न भवन्ति नवाप्रावृडभ्राणि ॥ ] अयि प्रोषित पतिके ! धीरज धारण करो, ये वर्षा के काले मेघ नहीं है, अपितु ग्रीष्म में लगने वाली दावाग्नि की मसि से मैले विन्ध्य पर्वत की श्रेणियाँ दिखाई दे रही है।॥ ७० ॥
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