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________________ गाथासप्तशती [ ईषत्स्फुटितशुक्तिसम्पुटनिलीनहालाहलाग्रपुच्छनिभम् । पक्काम्रास्थिविनिर्गतकोमलमाम्राकुरं पश्यत ।। ] वह देखो, आम की गुठली से निकला हुआ कोमल अंकुर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किंचित् फूटे हुए सीप के संपुट से ब्राह्मणी (जन्तु विशेष, जो चिपकली के आकार का होता है) को पूछ निकल पड़ी हो ॥ ६२॥ उअह पडलन्तरोइण्णणिअअतन्तुद्धपडिलग्गं । दुल्लक्खसुत्तगुत्थेक्कबउलकुसुमं व मक्कडअं ॥६३॥ [ पश्यत पटलान्तरावतोर्णनिजकतन्तूर्ध्वपादप्रतिलग्नम् । दुर्लक्षसूत्रग्रथितैकबकुल कुसुममिव मर्कटकम् ॥ ] .. देखो, छत के भीतर मकड़ो अपने तने हुए तन्तुओं के नीचे पैर ऊपर किए यों लटक रही है जैसे दुर्लक्ष्य सूत्रों में गुथा हुआ कोई बकुल-पुष्प हो ॥ ६३ ॥ उअरि दरदिटुथण्णुअणिलुक्कपारावआण विरुएहि । णित्थणइ जाअरेवेअण सूलाहिण्णं व देअउलं ॥६४॥ [ उपरोषवष्टशंकुनिलीन पारावतानां विरुतैः । निस्तनति जातवेदनं शूलाभिन्नमिव देवकुलम् ॥] प्राचीन मन्दिर का कलश टूट जाने पर भी बची हुई कील पर दुबक कर बैठे हुए पारावत बोल रहे है, मानों यह देव मंदिर शूली पर चढ़ा दिये जाने की व्यथा से कराह रहा है ।। ६४ ॥ जइ होसि ण तस्स पिआ अणुदिअहं णीसहेहि अनेहिं । णवसूअपीअपेऊसमत्तपाडि व्व किं सुवसि ॥६५॥ [ यदि भवसि न तस्य प्रियानुदिवसं निःसहैरङ्गैः।। नवसूतपीतपीयूषमत्तमहिषोवत्सेव किं स्वपिषि ।। ] यदि तुम उसकी प्रिया नहीं हो तो पीयूष ( नव प्रसूता गाय या भैंस का दूध ) पीकर मतवाले भैंस के बच्चे की तरह अलसाये अंगों से क्यों सो रही हो ॥ ६५ ॥ हेमन्तिआसु अइदीहरासु राइसु तं सि अविणिद्दा । चिरअरपउत्थवइए ण सुन्दरं जं दिआ सुवसि । ६६॥ [ हैमन्तिकास्वतिदीर्घासु रात्रिषु त्वमस्यविनिद्रा। चिततरप्रोषितपतिके न सुन्दरं यदिवा स्वपिषि ॥] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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