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________________ प्रथमं शतकम् अज्ज व्वेअ पउत्थो उज्जाअरओ जणस्स अज्जे अ । अज्ज अ हलिद्वापिञ्जाराइँ गोलाणइतडाई ॥५८॥ [ अद्यैव प्रोषित उज्जागरको जनस्याद्यैव । अद्यैव हरिद्रापिञ्जराणि गोदाननदीतटानि ॥ ] आज उनके प्रवास में जाते हीं लोग रात में जगने लगे हैं और गोदावरी की तट भूमि हल्दी से पीली हो गई है ॥ ५८ ॥ असरिसचित्ते दिअरे सुद्धमणा पिअअमे विसमसीले । ण कहइ कुडुम्बविहडणभएण तणुआअए सोहा ॥५९॥ [ असदृशचित्ते देवरे शुद्धमनाः प्रियतमे विषमशीले । न कथयति कुटुम्बविघटनभयेन तनुकायते स्नुषा ॥ ] देवर का अन्तःकरण कलुषित होने पर शुद्धमना वधू दुर्बल होती जा रही है, परन्तु कौटुम्बिक कलह के भय से उद्धत स्वभाव वाले पति से कुछ नहीं - कहली ।। ५९ ।। १५ चित्ताणिअदइअसमागमम्मि कअमण्णुआइँ भरिऊण । सुण्णं कलहाअन्ती सहीहिँ रुण्णा ण ओहसिआ ॥ ६०॥ [चित्तानोतदयितसमागमे कृतमन्युकानि स्मृत्वा । शून्यं कलहायमाना सखीभिः रुदिता नोपहसिता ॥ ] ध्यानावस्था में प्रिय के समागम को कल्पना कर पुनः उसके अपराधों की • स्मृति हो जाने के कारण व्यर्थ ही कलह करतो हुई, उन्मत्त विरहिणी को देखकर सखियों को हँसी के स्थान पर रुलाइ आ गई ॥ ६० ॥ हिअअण्णएहिँ समअं असमत्ताई पि जह सुहावन्ति । कज्जाइँ मणे ण तहा इअरेहिँ समाविआई पि ॥ ६१ ॥ [ हृदयज्ञैः सममसमाप्तान्यपि यथा सुखयन्ति । कार्याणिमन्ये मन्ये न तथा इतरैः समापितान्यपि ॥ ] हृदय का रहस्य समझने वाले के साथ किया हुआ अधूरा कार्य भी जितना सुखद होता है, मैं समझती हूँ, अन्य लोगों के साथ किया हुआ कार्य पूरा हो जाने पर भी उतना सुखद नहीं होता ॥ ६१ ॥ दरफुडिअसिप्पिसंषुडणिलुक्कहालाहलग्ग छेप्पणिहं पक्कम्ब द्विविणिग्गअकोमलमम्बुङ्कुरं Jain Education International For Private & Personal Use Only # अह ॥६२॥ www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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