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सप्तमं शतकम्
१६७ जब प्रेम बिष की भांति सर्वांग में फैल जाता है तब लोग उसका वारण करते है । ये लोग तब कहाँ चले गये थे जब वह प्रारम्भ हो हुआ था ।। ९६ ।। कहें तंपि तुइ ण णाअं जह सा आसन्दिआण बहुआणं । काऊण उच्चवचिअं तुह दंसणलहला पडिआ ॥ ९७ ॥ [ कथं तदपि त्वया न ज्ञातं यथा सा आसंदिकानां बहूनाम् ।
कृत्वा उच्चावचिकां तव दर्शनलालसा पतिता ।।]
क्या तुमने इसे जाना कि तुम्हें देखने की लालसा में एक के ऊपर एक आसन्दी लगाकर चढ़ते हुये मैं गिर पड़ी थो? ।। ९७ ॥ चोराण कामुआण अ पामरपहिआण कुक्कुडो वअइ । रे रमह वहह वाहयह एत्थ तणुआअए रअणी ॥ ९८ ॥
[ चौरान्कामुकांश्च पामरपथिकांश्च कुक्कुटो वदति ।
रे रमत पहत वाहयत अत्र तन्वी भवति रजनी ।। ] चोरों, कामीजनों और पथिकों को मुर्गा बांग देते हुये यह कहता है कि अब थोड़ी सी रात शेष रह गई है अतः वे क्रमशः चोरी का माल ले जायँ, रमण कर लें और अपनी यात्रा पर चल दें ।। ९८ ॥ अण्णोण्ण कडक्खन्तरपेसिअमेलीणदिटिपसराणं । दो च्चिअ मण्णे कसभण्डणाई समहं पहसिआइं ॥ ९९ ॥
[अन्योन्यकटाक्षान्तरप्रेषितमिलितदृष्टिप्रसरौ ।
द्वावपि मन्ये कृतकलहौ समकं प्रहसितौ ॥ ] आपस में झगड़ने के बाद नायक और नायिका एक दूसरे को कटाक्ष से देखते और आँखें मिलाते हुये मानो एक साथ ही हंस पड़े ॥ ९९ ॥ संझागहिअजलजलिपडिमासंकन्तगोरिमुहकमलं । सलिअंचिअ फुरिओट्ट विअलिअमन्तं हरं णमह ॥ १० ॥
[संध्यागृहीतजलालिप्रतिमासंक्रान्तगौरोमुखकमलम् ।
अलीकमेव स्फुरितोष्ठं विलितमंत्रं हरं नमत ॥ ] संध्या हेतु ली गई जलाञ्जलि में पार्वती के मुख को देखकर मिथ्या ही मंत्रविहीन कंपपाते होठों वाले शिव को नमन करो ॥ १०० ॥
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