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गाथासप्तशती णवकम्मिएण अपामरेण दळूण पाउहारीओ। मोत्तब्वे जोत्तअपग्गहम्मि अवहासिणी मुक्का ॥ ९२ ॥
[नवर्मिणा पश्य पामरेण दृष्ट्वा भक्तहारिकाम् । ___मोक्तव्ये योक्त्रमग्रहेऽवहासिनी मुक्ता ॥]
नये हलवाहे ने भात लाने वाली को देख कर जोत की रस्सी खोलने के बजाय नाथ ही खोल दी ।। ९२ ।।
ठूण हरिअदीअं गोसे गरजूरए हलिओ। असईरहस्समग्गं तुसारधवले तिलच्छेत्ते ॥ ९३ ॥
[ दृष्ट्वा हरितदीर्घ प्रातर्नोतिखिद्यते हलिकः ।
असतीरहस्यमार्गं तुषारधवले तिलक्षेत्रे ॥] __ सबेरे ओस के कणों से उज्ज्वल तिल के खेत में, व्यभिचारिणी का हरा-हरा लम्बा-सा रहस्य मार्ग देखकर हलवाहा दुःखो नहीं होता ।। ९३ ॥ सङ्केल्लिओ व्व णिज्जइ खण्ड खण्डं कओ व्व पीओ च । वासागमम्मि मग्गो घरहुत्तसुहेण पहिएण ॥ ९४ ॥
[ सङ्कोचित इव नीयते खण्डं खण्डं कृत इव पीत इव ।
वर्षागमे मार्गो गृहभविष्यत्सुखेन पथिकेन ।] भावी सुख की कल्पना से उस बटोही ने मानों राह ही छोटी बना दी, उसे पी लिया या उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ ९४ ।। धण्णा बहिरा अन्धा ते चिचअ जीअन्ति माणुसे लोए। ण सुगंति पिसुणवअणं खलाण ऋद्धि ण पेक्खन्ति ॥ ९५ ॥ .. [धन्या बधिरा अन्धास्त एव जीवन्ति मानुपे लोके ।
__न शृण्वन्ति पिशुनवचनं खलानामृद्धि न प्रेक्षन्ते ॥]
मनुष्य लोक में वे बहरे और अन्धे लोग धन्य हैं जो दुष्टों की चुगली को नहीं सुनते और जो उनको समृद्धि को न देखते हुये जोवन जीते हैं ॥ ९५ ॥ एण्हि वारेइ जणो तइआ मूइल्लओ कहिं व्व गओ। जाहे विसं व्व जाअं सव्वङ्गपहोलिरं पेम्म ॥ ९६ ॥
[ इदानीं वारयति जनस्तदा मूलकः कुत्रापि वा गतः । यदा विषमिव जात सर्वाङ्गघूणितं प्रेम ।।]
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